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________________ ६६ जैनधर्मामृत विशेषार्थ-मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थके विषयमें, या उसके सम्बन्धसे अन्य पदार्थके विषयमें जो विशेष चिन्तनात्मक ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। उसके मूलमें दो भेद हैंअंगवाह्य और अंगप्रविष्ट । अंग प्रविष्टके १२ भेद हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तःकृदशांग, अनुत्तरौपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग। इनमें दृष्टिवाद अंगके भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। उनमें पूर्वगतके उत्पादपूर्व आदि १४ मेद होते हैं। श्रुतज्ञानके दूसरे भेद अंगवाह्यके भी १४ भेद हैंसामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका । इन सबके स्वरूपका विस्तार तत्त्वार्थ राजवार्तिकके प्रथम अध्याय और गो० जीवकाण्ड की ज्ञानमार्गणामें किया गया है. सो वहाँ से जानना चाहिए। ये सब द्रव्यश्रुतज्ञानके भेद हैं। भावश्रुतज्ञानके पर्याय, पर्यायसमास आदि २० भेद होते हैं, उन्हें भी गो० जीवकाण्डकी ज्ञानमार्गणासे ही जानना चाहिए। विषय विभागकी दृष्टिसे श्रुतज्ञानके चार भेद किये गये हैं--प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। पुण्य-पापका फल बतलानेवाले कथानक, चरित, पुराण आदिके वर्णन करनेवाले अनुयोगको प्रथमानुयोग कहते हैं। लोक-. अलोकका विभाग, युगोंका परिवर्तन और चतुर्गतिरूप संसारका वर्णन करनेवाले अनुयोगको करणानुयोग कहते हैं। मुनि और श्रावकके आचार धर्मका वर्णन करनेवाले अनुयोगको. चरणानुयोग
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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