SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्याय प्रकारके ज्ञान स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र इन्द्रिय, और मनसे उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार चारों ज्ञानोंके २४ भेद हो जाते हैं । पुनः प्रत्येक प्रकारका ज्ञान बहु, बहुविध, अल्प, अल्पविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, निःसृत, अनिःसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव और अध्रुवरूप होता है । इस प्रकार उक्त चौबीसों प्रकार के ज्ञानके बहु-बहुविध आदि बारह प्रकारके पदार्थों को जाननेसे २८८ भेद हो जाते हैं । ये सब भेद व्यक्त पदार्थके होते हैं । किन्तु जो पदार्थ व्यक्त नहीं होता, उसका ज्ञान केवल अवग्रहरूप ही होता है, ईहादिरूप नहीं । तथा वह अवग्रहरूप भी ज्ञान चक्षुरिन्द्रिय और मनसे नहीं होता है, किन्तु शेष चार इन्द्रियोंसे होता है । ये चारों इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ अवग्रहज्ञान बहु-बहुविध आदि बारह प्रकारके पदार्थोंको जानता है अतएव बारहको चारसे गुणित करने पर ४८ भेद हो जाते हैं । इन्हें पहले बतलाये गये २८८ में जोड़ देने पर मति - ज्ञानके ३३६ भेद हो जाते हैं । + ६५ यहाँ इतना अवश्य जान लेना चाहिए कि जिस जीवके चित्तकी विशुद्धि जितनी अधिक होगी, वह उतना ही स्पष्ट और अधिक क़ाल तक स्थिर रहनेवाले ज्ञानका धारक होगा । श्रुतज्ञानका स्वरूप .: प्रसृतं बहुधाऽनेकैरङ्गपूर्वः प्रकीर्णकैः । स्याच्छन्दलान्छितं तद्धि श्रुतज्ञानमनेकधा ॥५॥ आचारादि ग्यारह अंग, उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्व और सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णक भेदोंकी अपेक्षा बहुत प्रकारसे विस्तृत 'स्यात्' शब्दसे चिह्नित श्रुतज्ञान अनेक प्रकारका है ॥ ५ ॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy