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________________ तप का उद्देश्य और लाभ तपस्या के द्वारा आत्मा कर्मों को दूर हटाता है। कर्मोका क्षय करता है । कर्मों की निर्जरा करता है। बस यही तप का उद्देश्य है और यही तप का फल है । तप से जो पाना चाहते हैं-वह यही फल है-निर्जरा ! व्यवदान ! जैन परम्परा में भगवान महावीर को तपोयोगी माना गया है। और भगवान पार्श्वनाथ को ध्यानयोगी। भगवान पार्श्वनाथ के युग में अज्ञान तप का बोल-बाला था । लोग भौतिक सिद्धियों के लिए कठोर देहदमन-अज्ञान तप करते थे। पंचाग्नि साधते थे, वृक्षों पर ओंधे लटकते थे। शीतकाल की भयंकर सर्दी में भी और हडकंपी पैदा करने वाली ठंडी हवाओं में भी पानी के भीतर खड़े रहकर तप जप किया करते थे। किन्तु कोई उनसे पूछता कि आप यह तप, जप, यज्ञ आदि क्यों करते हैं ? तो उनका एक ही उत्तर होतास्वर्गकामो यजेत ! स्वर्ग के लिए यज्ञ तप करो ! अमुक सिद्धि के लिए ! अमुक शक्ति को प्राप्त करने के लिए ! बस इससे आगे उनके समक्ष कोई उद्देश्य ही नहीं था। किन्तु भगवान पार्श्वनाथ ने तप का उद्देश्य जनता को समझाया-तप शरीर को सुखाने के लिए नहीं। ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं ! किन्तु आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करने के लिए हैं । जो वात भगवान महावीर ने कही थी वही वात भगवान पार्श्वनाथ ने भी कही थी। उनके स्वयं के वचन व उपदेश भले ही आज हमारे पास नहीं है, किन्तु उनकी परम्परा के विद्वान श्रमणों के वचन आज भी भगवती सूत्र में. इस बात की साक्षी देते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ ने तप का उद्देश्य क्या बताया है। एक वार तुगियानगरी के तत्त्वज्ञ धावको ने भगवान पार्श्वनाथ के स्थविर श्रमणों से तत्त्व चर्चा करते हुए पूछा-भंते ! आप तप क्यों करते हैं ? तप का क्या फल है-तवे किं फले ? उत्तर में श्रमणों ने कहा-तवे बोदाण फले-तप का फल है व्यवदान ! कर्म निर्जरा ! तो जो वात भगवान महावीर ने गौतम स्वामी से कही है, वही वात पावसंतानीय श्रमणों ने १ भगवती सूत्र २२५
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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