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________________ . .. .. जैन धर्म में तप .. श्रावकों से कही है और समस्त तीर्थङ्करों ने, आचार्यों ने भी यही बात कही . . है । सम्पूर्ण जैन संस्कृति का एक ही स्वर है–कि . ......... नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिछिज्जा, नन्नत्य निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा।' . . . इह लोक की कामना और अभिलाषा से तप मत करो, परलोक की कामना और लालसा से तप मत करो! यश कीति और प्रतिष्ठा आदि के लिए भी तप मत करो ! तप करते हो तो केवल कर्म निर्जरा के लिए करो! कामनायुक्त तप क्यों नहीं ? .. अव एक प्रश्न खड़ा होता है कि तप के उद्देश्य के विषय में इतना जोर क्यों दिया गया है कि "किसी भी भौतिक अभिलापा से तप मत करो! इहलोक परलोक के लिए भी तप मत करो!" इस निपेध का मतलब क्या है ? स्वर्ग के लिए तप क्यों नहीं किया जाय ?' इस के उत्तर में आपको जैन दर्शन की दृष्टि समझनी होगी। आपको पता है जैन धर्म सुखवादी धर्म नहीं है, मुक्तिवादी धर्म है । जो सुखवादी धर्म है, वह सिर्फ संसार के सुखों में उलझा रहता है। • इस लोक में धन मिले, सुन्दर पत्नी मिले, यशकीति मिले और परलोक में स्वर्ग मिले । बस, यही उसका दृष्टिकोण रहता है, और इसीलिए वह सब कुछ करना चाहता हैं । लेकिन जो मुक्तिवादी धर्म है, वह कहता है सुख और दुःख दोनों ही बन्धन है। आदमी सुख चाहता है, सुख के लिए प्रयत्न करता है, समझ लो, सुख प्राप्त भी हो जाता है, अब वह सुख भोगता है, ऐशो आराम करता है, किन्तु उस सुख-भोग के साथ नया पाप कर्म भी बांधता जाता है । शुभ कर्म क्षीण होता है,फिर अशुभ कर्म का उदय होता है। थोड़े से सुख के बाद भयंकर दुःख प्राप्त होते है । गीता में बताया है- जो १ दशवकालिक ६।४
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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