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________________ . जैन धर्म में तप हो जायेगा । इसलिए जो भी कार्य करो, वह अशुभ कर्म को नष्ट करने के लिए करो । अर्थात् अशुभ कर्म की निर्जरा के लिए करो। __दूसरी बात यह भी है कि भौतिक लाभ के लिए तप करने वाले का उद्देश्य बहुत सीमित है, वह छोटे से उद्देश्य के लिए ही बहुत बड़ा कष्ट उठाता है, जबकि कर्म निर्जरा के लिए तप करना असीम अचिन्तनीय फल देने वाला है । एक आदमी अमृत का उपयोग कीचड़ से सने पाँव धोने के लिए करता है और एक मरते हुए प्राणी को जीवन दान देने के लिए। अमृत के उपयोग में जिस प्रकार यह महान अन्तर हैं, उसी प्रकार तप के उद्देश्य में भी महान अन्तर है । भौतिक लाभ के लिए तप करना अमृत से पैर धोने जैसा है। चिन्तामणि रत्न को फेंककर कौओ उड़ाने जैसा मूर्खता . पूर्ण कृत्य है । आप जानते हैं कामना युक्त तप का फल सिर्फ स्वर्ग है,भौतिक लाभ है, जबकि निष्काम तप का फल सव कर्मों का क्षय कर अनन्त आनन्द- . मय मोक्ष को प्राप्त करना है । अव कौन मूर्ख है जो अपने अचिन्तनीय लाभप्रद तप के द्वारा अनन्त मोक्ष सुख की कामना को छोड़कर क्षणिक सुखों की . इच्छा करेगा। इन दोनों दृष्टियों से सकाम तप का निषेध किया गया है। गीता में भी कहा गया है असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः । अनासक्त भाव से जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह परमपद को प्राप्त करता है और आसक्ति के साथ कर्म करने वाला तुच्छ लाभ को । एक लोक कथा प्रसिद्ध है एक साधक ने चौदह वर्ष तक कठोर साधना की। उपवास किये, मौन .. रखा और फिर उसने जल पर चलने की सिद्धि प्राप्त की। यह सिद्धि प्रान्त होते ही साधक अहंकार में फूल उठा । वह अपने गुरु के पास आया, और अहंकार से गर्दन ऊँची उठाकर बोला-"गुरुजी ! मेरी चौदह वर्ष की साधना सफल हो गई। मैंने जल पर चलने की सिद्धि प्राप्त कर ली । अव . . १ गीता २०१६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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