SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'तप का उद्देश्य और लाभ बंधुओ ! आचार्यों ने तप के विषय में भी यही बात कही है । तप रूप महावृक्ष से जो कि निर्जरा रूप मधुर फल चाहता है, वह सच्चा और चतुर साधक है और जो शरीर को भयंकर कष्ट व यंत्रणा देकर भी उस तप से सिर्फ यश, कीर्ति, ऋद्धि-सिद्धि और स्वर्ग की कामना करता है, वह मूर्ख, अज्ञान अथवा बालतपस्वी है। जैन सूत्रों में तप की अद्भुत और अपार महिमा गाई गयी है, जिसकी एक झलक आप देख चुके हैं । उस तप के प्रभाव से अचिन्त्य लब्धियाँ, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । यह सुनकर आपके मन में भी ललक उठेगी कि हम भी तप करें और अमुक शक्ति, अमुक लब्धि प्राप्त करलें, अमुक देवता को प्रसन्न करलें ! किंतु बंधुओ ! जैसा मैंने कहा-किसी ऋद्धि सिद्धि अथवा देवता आदि को प्रसन्न करने के लिए तप करना तो आम के महावृक्ष से लकड़ियाँ चाहने जैसा है । वास्तव में तप का उद्देश्य यह नहीं है । तप तो किसी महान लाभ के लिये किया जाता है--ऋद्धि-सिद्धि तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है जैसे धान की खेती में धान के साथ भुसा-पलाल भी होता है। किंतु क्या कोई पलाल व भुसा के लिए ही खेती करता है ? नहीं । इसी प्रकार किसी भौतिक लाभ के लिए तप नहीं किया जाता, तप आत्मशुद्धि के महान उद्देश्य से प्रेरित होकर ही किया जाना चाहिए। तप का फल : निर्जरा मैंने आपको तप की परिभापा करते हुए बताया है कि जैसे अग्नि सोने को शुद्ध करती है, फिटकरी मैले जल को निर्मल बनाती है, सोड़ा या साबुन मलिन वस्त्र को उज्वल बनाता है उसी प्रकार तप आत्मा को शुद्ध निर्मल और उज्वल रूप प्रदान करता है । आचार्य भद्रवाहु ने कहा है जह खलु मइलं वत्यं सुज्झए उदगाहिएहि दवेहि, ___ एवं भावुवहाणेण, सुज्झए फम्मट्ठविहं ।' जैसे मैला वस्त्र जल आदि शोधक द्रव्यों से उज्ज्वल हो जाता है, १ आचारांग नियुक्ति २८२
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy