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________________ ५८ का जैन धर्म में तप . ही भाव तप के द्वारा कर्म मल से मुक्त होकर आत्मा शुद्ध व पवित्र बन जाता है। आत्मा के साथ जो अनन्त अनन्त कर्म दल चिपक कर उसे मलिन बना रहा है, उसके शुद्ध ज्योतिर्मय स्वरूप को ढक रहा है-तप की तेज पवन उन कर्म दलों को तितर-वितर कर आत्म-सूर्य की निर्मल ज्योति को प्रकट कर देती है । वस, तप का यही उद्देश्य है, यही उसका फल है।.. मनुष्य कोई काम करता है तो उसके सामने उसके फल की कल्पना भी रहती है । उद्देश्य और लक्ष्य भी रहता है। . लक्ष्यहीन फलहीन कार्य को मूरख जन आचरते हैं। . सुज्ञ सुधीजन प्रथम, कार्य का लक्ष्य सुनिश्चित करते हैं। जो तप जैसा कठोर, देह दमनीय कार्य करता है वह विना उसका लक्ष्य समझे, बिना उसके फल की कल्पना किये कैसे करेगा ? क्या कोई किसान अपने खेत में ऐसे-तेसे बीज डालेगा जिनके लिए उसे यह भी नहीं मालूम हो कि इनके फल कैसे लगेगें? नहीं ! आप कोई भी कार्य करते हैं, . एक कदम भी चलते हैं तो पहले उसके परिणाम को सोचते हैं। फिर कार्य । करते हैं। तो तप का फल क्या है ? उद्देश्य क्या है ? तप किस लिये किया जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर मैं भगवान महावीर की वाणी में ही दूंगा। भगवान महावीर एक बार राजगृह नगर में पधारे। वहां पर गणधर .. इन्द्रभूति गौतम ने भगवान से कई प्रश्न पूछे, उनमें एक प्रश्न याक्ष तप के विषय में । गौतम ने पूछा भगवन् ! तप करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? . उत्तर में भगवान ने कहा-तवेण वोदाणं जणयइ ।' तप से व्यवदान होता है । व्यवदान का अर्थ है-दूर हटाना । आदान का अर्थ है ग्रहण करना और व्यवदान का अर्थ है छोड़ना, दूर करना । तो १ उत्तराध्ययन २६२७
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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