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________________ तप की महिमा दर्शन हो सकता है । महपिं मनु ने तो कह दिया है कि ससार मे जो कुछ है सो तप ही है यद् दुस्तर यद् दुरापं यद् दुर्ग यच्च दुष्करम् सर्व तत् तपसा साध्यं तपोहि दुरतिक्रमः ।' मसार मे जो कुछ भी दुस्तर है, दुष्प्राप्य है-अर्थात् कठिनता से प्राप्त होने वाला है, दुर्गम है, दुष्कर है वह सब कुछ तप के द्वारा पाया जा सकता है, साधा जा सकता है । तप की शक्ति के समक्ष अन्य कुछ भी दुष्कर नहीं है, जो दुष्कर है, दुर्लध्य है, वह स्वय तप ही है । यही एक अमोघ महाशक्ति है, जो इसे साध लेता है वह ससार की समस्त कठिनाइयो पर, समस्त शक्तियो पर विजय प्राप्त कर सकता है। तप सब को जीत सकता है, तप को कोई नहीं जीत सकता।" ___ तो यह है तप की महिमा । अब बौद्धधर्म के पृष्ठो को भी पलट लीजिए, देखिए वहाँ भी कितने मुक्तमन से तप की महान् शक्तियो का तप की सार्वभौमता का वर्णन किया गया है । बौद्ध धर्म में तप का स्थान हमारे जैन धर्म का एक निकट पडौसी धर्म है बौद्धधर्म । जैन और वौद्ध दोनो ही श्रमण नाम से पुकारे जाते हैं। इन दोनो धर्म परम्पराओ मे काफी निकटता भी रही है, यद्यपि आज भारतवर्ष मे बौद्ध धर्म का वह स्थान नही रहा, जो प्राचीन समय मे था, फिर भी उस धर्म का विश्व मे काफी फैलाव हुआ है । हा, तो बौद्ध धर्म मे भी तप के सम्बन्ध में क्या विचार है-~-सक्षेप मे मैं आपको बता दू । आमलोगो मे यह धारणा है कि महात्मा बुद्ध तप के विरोधी थे। कहते हैं कि-छह वर्ष तक कठोर तपस्या करते-करते वे तप से ऊब गये थे, साधना मे सफलता नहीं मिल रही थी। एक दिन वे उदासीन, चिन्तामग्न' से बैठे थे, तभी कोई गायक मडली उनके पास से निकली। उनमे एक अनुभवी गायिका किसी नवशिक्षित युवती से कह रही थी-"देखो, सितार के १ मनुस्मृति ११।२२६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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