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________________ ४४ जैन धर्म मे तप तारो को इतना ढोला न छोड़ो, कि वे वजे ही नही, और न इतना ज्यादा कसो, कि वस टूट जाये ।" तपस्या से उद्विग्न बुद्ध ने ये शब्द सुने तो उनके मन मे एक प्रकाश सा जगा, कि सचमुच जीवन इतना आराम-भोगप्रधान भी नहीं होना चाहिये कि वह एकदम शिथिल, दुर्बल और क्षीण हो जाय कि संयम का स्वर भी नहीं सध सके, और न इतना कठोर, देहदण्ड भी हो कि बस मन अशात और उद् विग्न रहे । ध्यान मे स्थिरता व शान्ति भी न रह सके । इसी विचार से प्रेरित हो बुद्ध ने कठोर देह दण्ड का मार्ग छोडकर मध्यम मार्ग अपनाया। महात्मा बुद्ध के जीवन की यह घटना बहुत प्रसिद्ध है और मध्यम मार्ग के समर्थक इसका जोरदार शब्दो मे मण्डन भी करते हैं । किन्तु बौद्ध धर्म को गहराई से पढने वाले जानते हैं कि इस घटना के बावजूद भी उस धर्म मे तप का महत्व कम नहीं हुआ । प्रारम्भ मे बुद्ध स्वय छह वर्ष तक कठोर तप करते रहे हैं। और इस घटना प्रसंग के बाद भी उन्होने तप साधना का मार्ग छोडा नही। मज्झिमनिकाय के महासीहनाद सुत्त मे सारिपुत्र के समक्ष वे अपनी कठिन तपश्चर्या का रोमाचक वर्णन सुनाते हैं । अपने पूर्वजन्मो मे की गई कठोर तपश्चर्या की अनेक कहानिया वे लोगो को बताते है और तपस्या की प्रेरणा भी देते हैं । जीवन रूप खेत में धर्म और सत्कर्म की फसल लगाने के लिए वे श्रद्धा को वीज वताते हैं और तपश्चर्या को वृष्टि सखा वीजं तपो वुट्टि श्रद्धा मेरा वीज है, तप मेरी वर्षा है । बुद्ध ने चार उत्तम मगलो मे 'तप' को सर्व प्रथम उत्तम मगल माना है और इसकी आराधना की प्रेरणा दी है। एक बात यह भी जान लेनी चाहिए कि वैदिक और जैन दर्शन की भांति १ मुत्तनिपात ११४२ २ महामगल मूत्र
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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