SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में १ आलोपारिहे आलोचना २ पहिरफमणारिहे-प्रतिक्रममाह ३ सदुमयारिहरादुनयाई ४ थियेगारिहे---विवेकाह ५ बिगारिहयुत्महिं ६ तयारि तपाहं दारिद-~-छेदाई ८ मूलारिहे ---मूलाई ९ अगयापारिह-अनयस्याप्या १. पारंरिपारिह-नागचिकाई आसोसना मनाम बोप-स्वीकृति ग प्रायश्चित्त में सबसे पहला प्राय नित-आनोचना है। आतीनगा शब्द आज गुग में बहुत व्यापम और प्रतिसाद है। किसी भी nिe में मुनामीनी मारना, टीका-टिप्पणो अथवा किसी को कोई गुम-- बोरमबन्धी गर्ग करना आलोचना कहा जाता है। निधा में प्राचीन या में आलोचना का पुछ दूसराही अमिता है। यहां दूसरों में गुम गोप को समीक्षा तो कोई प्रयोगही नहीं, पासा सवामी पर है, काम को देगना और स्यमा सुधार करना होता है। इसलिए भोगना मा भी यहां यही किया है REAT दार मसल रनों के समक्ष प्रकट मार देना भीनमा।" आमाओं ने referपिता सतोषानां लोचना---गुटरमाकानाभालोपना - Iो को माहो. ही रोग? Irrier देना pra Enter * . xxमार Ere stri ཙྩ བྷཱུ ཨཁན་སྦས ཨཱཏྟབསཱཡཱ ཀ 3ཝཱ- སྶ ཎ : | ༔ ལས༔ 1 Fཙཨུ་ .marwanawwamrememe
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy