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________________ प्रायश्चित्ततंप Rec कार्य नहीं है । पर निन्दा तो हर कोई कर सकता है, दूसरों के दोष देखना सरल है, किन्तु अपना दीप देखना और अपनी निन्दा करना बहुत कठिन हैदोष पराए देखकर चले हसते हसंत । अपने याद न आवह जाफा आदि न अंत ! पाप का भय होता है, दोष अपना दोष तभी नजर आता है जब मन में के प्रति पश्चात्ताप एवं ग्लानि होती है तथा मन सरल होता है। इसलिए आलोचना में सर्वप्रथम बात हृदय को सरलता है । वालक जैसा सरल हृदय करके अपने दोषों को गुरु के समक्ष प्रकट कर देना चाहिए। बहुत से पाप ऐसे होते हैं, जिनका और कोई प्रायश्चित्त नहीं होता, सरलतापूर्वक प्रकट करने से ही उनका प्रायश्चित हो जाता है, उन दोष की शुद्धि हो जाती है । वाचार्य ने बताया है जह वालो जयंतो पज्जमज्जं च उज्जयं भई । तं तह मातोएज्जा माया मय-विष्यको उ बालक- जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता है यह सब सरल नाव से कर देता है । उनके मन में कोई दुराव-हिरा या नहीं होता । एक प्रतिक है का सेोजन मिलने को बाया | भीतर बैठे में, बच्चे को कहा --- जाओ ! बाहर से आवाज लगाई। माह कह दो, हां नहीं है। बच्चे में आकर ने कहा है- पिताजी कां नहीं है! नाप देवि-पिता ने वोट बसपा पर तो झूठ बोलने में भी कहा--उनका पिताजी यहां नहीं है।” "वाजी ने कहा साधना मे लाम श्री हृदय की इतनी होती है भी नहीं कुए से कराया नम 1 sofing is ent
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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