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________________ सकोगे ! दुलना! काम-भोगों की आदि व्रतों की शुद्ध जाता है मन प्राप्त जान देता है। अधिक मूर्ख तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान ११३ सकोगे ! दुर्लभवोधि वनकर संसार-चक्र में परिभ्रमण करते रहोगे।' इसलिए हे श्रमणो ! काम-भोगों की आसक्ति से मुक्त होकर, सब संगअभिलापाओं का त्याग करके अपने तप-नियम आदि व्रतों की शुद्ध आराधना करो, किये हुए निदान का प्रायश्चित्त करो, ताकि तुम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का दर्शन कर सको, कर्मआवरणों का क्षय कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अक्षय अव्यावाध सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर सको।" दशाश्रुतस्कंध के इस प्रसंग से स्पष्ट होता है कि निदान करने से आत्मा तप व संयम से किस प्रकार पतित व भ्रष्ट हो जाती है। उस भव में ही क्या, किंतु अनेक भवों तक उसे सद्धर्म का श्रवण भी मिलना कठिन हो जाता है, और वह संसारचक्र में परिभ्रमण करने लगती है। जैसे कोई कठोर प्रयत्न से प्राप्त अमृत को नदी के प्रवाह में बहा देता है, शुद्ध गाय के घी को राख के ढेर में डाल देता है, और चिंतामणि रत्न को समुद्र में फेंक देता है, वैसी ही बल्कि उससे भी अधिक मूर्खतापूर्ण वात है, निदान करके तप के फल को खत्म कर डालना । फ्या साधना के लिए निदान विहित है ? एक प्रश्न यहां उपस्थित होता है कि निदान का निषेध इसलिए किया गया है कि उसके मूल में तीव्र भोगाभिलाषा रहती है । यदि कोई भोगाभिलापा न रखकर अन्य वस्तुओं के लिए निदान करे तो क्या वह भी निंदनीय है ? जैसे किसी ने संकल्प किया-'मैं अगले जन्म में तीर्थकर बनू, अथवा चरम शरीरी वनू !' तो क्या यह संकल्प भी नहीं करना चाहिए? इसमें क्या आपत्ति है ? . जैनधर्म इस प्रश्न को बहुत ही गहराई से पकड़ता है और स्पष्ट विश्लेषण करके कहता है कि तीर्थक रत्व की अभिलाषा भी एक प्रकार की अभिलाषा १ एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेया रूवे पावकम्म-फल विवागे जं णो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए । -दशा तस्कंघ १०
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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