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________________ जैन धर्म में तपः ११० लिए बेच डाला, मैंने शुद्ध तप किया जिस कारण इतना ऋद्धिशाली देव वना हूँ ।" मित्र की बात सुनकर विद्य ुन्माली बहुत पछताने लगा । अपनी भूल पर बहुत दुःख हुआ - " पर अव पछताये होत क्या चिड़िया चुग गई खेत ।" भाष्यकार आचार्य ने इस कथा के मर्म को स्पष्ट करते हुए बताया है, निदान तप करने वाला जब दूसरों की असीम शक्ति व समृद्धि को देखता है. तो इसी प्रकार अपने कृत निदान पर पछताता है । शोक करता है । क्योंकि निदान का फल तो उतना ही होगा जितना उसने संकल्प किया था । ' तपस्या में बार-बार निदान करने से, भोगों की अभिलापा के वश होकर अपना तप दांव पर लगाते रहने से वह तप दूषित हो जाता है, तथा उसका तेज क्षीण हो जाता है । लम्बी और कठोर तपस्या करने पर भी तपस्वी के तपस्तेज में वह वल और शक्ति नहीं रहती, कारण वह तप को बार-बार दूपित करता रहता है । इसलिए स्थानांग सूत्र में बताया गया है-जैसे बारवार बोलने से अर्थात् वाचालता से सत्य वचन वार-वार लोभ करने से निस्पृहता का प्रभाव बार-बार निदान करने से तप का तेज क्षीण हो तप का उत्तम फल नष्ट हो जाता है । इसलिए रहित होकर तप करने को श्रेष्ठ बताया है ।" का तेज नष्ट हो जाता है, क्षीण हो जाता है, वैसे ही जाता है । निदान करने से : भगवान ने सर्वत्र निदान निदान का हेतु : तीव्र लालसा निदान तभी किया जाता है, जब अमुक वस्तु के प्रति साधक के मन में तीव्र राग भाव उत्पन्न होगा, गहरी आसक्ति मोर आकर्षण होगा । साधारण स्थिति में कोई भी साधक अपने तप को बेचना या नष्ट करना नहीं चाहता, किन्तु जव अमुक किसी वस्तु पर अथवा दृश्य देखने पर मन राग से चंचल हो उठता है, कामनाओं से प्रताड़ित होने लगता है, और वार-बार उन विषय भोगों के प्रति आसक्त होने लगता है तभी साधक अपने महान उद्देश्य 'भिज्जा णिदाणकरणे मोक्स १ मोहरिए सच्चयणस्त पलिमंधू... मग्गस्त पलिमंधू । सव्वत्य भगवया अणियाणया पसत्या । -स्थानांग ६१३
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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