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________________ तप का उद्देश्य और लाभ स-काम कर्म करते हैं, पुण्य की अभिलाषा से, स्वर्ग की कामना से तप करते हैं, वे मर कर स्वर्ग को प्राप्त भी कर लेते हैं, किन्तु वहां अप्सराओं के मोह माया में फंसकर अपने समस्त पुण्यों का क्षय कर डालते हैं, और फिर पुण्य हीन होकर पुनः दुःखों के महागर्त में गिर जाते हैं । क्षीणे पुण्ये मयं लोकं विशन्ति इस प्रकार सुख-दुःख का यह चक्र चलता रहता है । दुख से घबराकर सुख की कामना करते हैं, स-काम कर्म करते हैं और सुख प्राप्त कर पुनः दुःख के योग्य कर्म वांधकर दुःख के गर्त में गिर पड़ते हैं। संसार के जितने भी सुख हैं, वे सब दुःख की खान है। जितने सुख संसार में सारे दुःख की खान । जो सच्चा सुख चाहिए ले समता उर ठान । सुख-दुख का मूल : कर्म जैन दर्शन कहता है-सुख-दुःख के इस चक्र का मूल है कर्म ! संसार के समस्त सुख और दुःख कर्म से ही उत्पन्न होते हैं-कम्मुणा उवाही जायईकर्म से सभी उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं। सभी प्राणी अपने कमों के कारण ही नाना योनियों में जन्म लेते हैं-सव्वे सय कप्पफप्पियारे-सव प्राणी अपने कर्म के अनुसार चलते हैं। जं जारिसं पुवमकासि फम्म तमेव आगच्छति संपराए। पूर्व जन्म में जिसने जैसा कर्म किया है इस जन्म में वही उसके भोग में आयेगा । कर्मवाद का यह शाश्वत नियम है। अव जैन दर्शन कहता हैसुख-दुःख तो कर्म के अधीन है। सुख-दुःख तो खुद सेवक हैं, राजा तो कर्म है - अशुभ कर्म को क्षीण करो तो दुख अपने आप क्षीण हो जायेगा और दुःख का क्षय होगा तो सुख भी स्वतः प्रगट हो जायेगा । दीपक जलाओगे तो अंधेरा अपने-आप मिट जायेगा, और अंधेरा मिटा तो प्रकाश स्वतः ही १ आचारांग ११३३१ २ सूत्रकृतांग १।२।३।१८ सूत्रकृतांग १।५।२।२३
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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