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________________ तत्त्वदर्शन २१७ जदत्थि णं लोगे, तं सव्वं दुअओआरं। -स्थानांग २१ विश्व में जो कुछ भी है, वह इन दो शब्दों समाया हुआ हैहै-चेतन और जड। ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति । -स्थानांग १० न ऐसा कभी हुआ है, न होता है और न कभी होगा ही कि जो चेतन है-वे कभी अचेतन-जड़ हो जाएं और जो जड अचेतन वे चेतन हो जाएं। अत्थित्त अत्थित्ते परिणमड, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ । -भगवती १३ अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है, अर्थात् सत् सदा सत् ही रहता है और असत, सदा असत् । अजीवा जीव पइट्ठिया, जीवा कम्म पइट्ठिया । -भगवती १२३ अजीव जड पदार्थ जीव के आधार पर रहे हुए है और जीव (संसारी प्राणी) कर्म के आधार पर रहे हुए है। अथिरे पलोट्टइ नो थिरे पलोट्टइ । अथिरे भज्जइ, नो, थिरे भज्जइ ॥ अस्थिर बदलता है, स्थिर नहीं बदलता । अस्थिर टूट जाता है, स्थिर नही टूटता ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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