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________________ २३ १ २ ३ जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ || तत्त्वदर्शन जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा । जे अणासवा ते अपरिस्सवा जे अपरिस्सा ते अणासवा || जो एक को जानता है, वह सब को जानता है । और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है । - आचारांग १।३।४ असत् कभी सत् नहीं होता । २१६ - आचारांग १।४।२ जो बन्धन के हेतु हैं, वे भी कभी मोक्ष के हेतु हो सकते हैं । और जो मोक्ष के हेतु हैं, वे भी कभी बन्धन के हेतु भी हो सकते हैं । जो व्रत, उपवास आदि संवर के हेतु हैं कभी-कभी संवर के हेतु नहीं भी हो सकते हैं। और जो आस्रव के हेतु हैं वे कभी-कभी आश्रव के हेतु नहीं भी हो सकते हैं-- अर्थात् आश्रव और संवर मूलतः साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है । नो य उप्पज्जए असं । - सूत्रकृतांग १|१|१|१६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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