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________________ २१८ जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ ६ करणओ सा दुक्खा, नो खलु सा अकरणओ दुक्खा । -भगवती १११० कोई भी क्रिया किए जाने पर ही सुख-दुःख का हेतु होती है। न किए जाने पर नहीं। १० जीवा णो वड्ढंति, णो हायंति, अवटिठया । -भगवती । जीव न बढ़ते हैं न घटते है, किन्तु सदा अवस्थित रहते हैं । जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे। -भगवती ६।१० जो जीव है, वह निश्चितरूप से चैतन्य है। और जो चैतन्य है, वह निश्चितरूप से जीव है । १२ अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ । उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ ।। -भगवती १ सिद्धान्तानुकूल प्रवृत्ति करनेवाला साधक ऐपिथिक (मल्पकालिक) क्रिया का बंध करता है । सिद्धान्त के प्रतिकूल प्रवृत्ति करनेवाला सांपरायिक (चिरकालिक) क्रिया का बन्ध करता है। जीवा सिय सासया, सिय असासया । " दव्वट्ठयाए सासया, भावठ्ठयाए असासया ॥ --भगवती ७२ जीव शाश्वत भी है, अशाश्वत भी। द्रव्यदृष्टि (मूलस्वरूप) से शाश्वत है तथा भावदृष्टि (मनुष्यादि पर्याय) से अशाश्वत ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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