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________________ जिनशासन - शिरोमणि आचार्य भद्रबाहु ७३ "वाचना को स्थगित करने से आर्य स्थूलभद्र को भी अपने प्रमाद का दण्ड मिलेगा और भविष्य मे श्रमणो के लिए उचित मार्ग दर्शन होगा ।" अह भइ थूलभद्दो, अण्ण रुव न किचि काहामो । इच्छामि जाणिउ जे अह चत्तारि पुव्वाइ ॥ ८००॥ ( तित्थोगा लिय पन्ना ) आर्य स्थूलभद्र ने एक वार और अपनी भावना श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु के - सामने प्रस्तुत करते हुए कहा- "में पररूप का निर्माण कभी नही करूंगा । अवशिष्ट चार पूर्वो का ज्ञान देकर मेरी इच्छा पूर्ण करें ।" आर्य स्थूलभद्र के अत्यन्त आग्रह पर भद्रवाहु ने उन्हें चार पूर्वो का ज्ञान इस - अपवाद के साथ प्रदान किया। वह अवशिष्ट चार पूर्वो का ज्ञान आगे किसी को "नही दे सकेगा । दश पूर्व तक आयं स्थूलभद्र ने अर्थ ग्रहण किया। शेष चार पूर्वी का ज्ञान शब्दश प्राप्त किया, अर्थ युक्त नही । आगम वाचना के इस प्रसग का उल्लेख उपदेशमाला विशेष वृत्ति, आवश्यक चूर्ण, तित्थोगाली, परिशिष्ट पर्व इन चार ग्रंथो मे अत्यल्प भिन्नता के साथ विस्तार से प्रस्तुत है । परिशिष्ट पर्व के अनुसार दो श्रमण श्रुन वाचना के हेतु प्रार्थना करने के लिए नेपाल पहुचे थे । तित्थोगाली तथा आवश्यक चूर्णि मे श्रमण सघाटक का निर्देश है। श्रमणो की संख्या का निर्देश नहीं है । परिशिष्ट पर्व के अनुसार ५०० शिक्षार्थी श्रमण नेपाल पहुचे थे । तित्थोगाली मे यह सख्या १५०० की है। इसमे ५०० श्रमण शिक्षार्थी एव १००० श्रमण परिचर्या करने वाले थे । आचार्य भद्रबाहु के जीवन का यह घटनाचक्र जैन दर्शन से सम्बन्धित विविध आयामको उद्घाटित करता है । सघहित को प्रमुख मानकर आचार्य प्रवर्तना करते हैं । जहा सहित गौण हो जाता है वहा जनसम्मत विधि-विधानो के आधार पर सघहितार्थ आचार्यों को भी सघ की बात पर झुकना पडता है । I आचार्य भद्रवाहु के द्वारा वाचना- प्रदान के लिए अस्वीकृति देने पर उन्हीसे 'पूछकर सघ ने आचार्य भद्रबाहु को वहिष्कृत घोषित कर दिया । इसी प्रसग मे स्थूलभद्र की भूल हो जाने पर आर्य भद्रबाहु के द्वारा वाचना प्रदान का कार्य स्थगित हो गया । सघ की प्रार्थना को भी उन्होने मान्य नही किया । स्थूलभद्र के अति आग्रह पर भी उन्होने शब्दश दृष्टिवाद की वाचना प्रदान की अर्थत नही । यहा पर भी सघ की बात आचार्य भद्रवाहु द्वारा अस्वीकृत होने पर सघ वहिष्कार का प्रायश्चित्त सघ ने उनके लिए घोपित क्यो नही किया ? जिस हथियार का प्रयोग उन्होने पहले किया था उसे अव भी किया जा सकता था और मर्थत अतिम चार पूर्वी की ज्ञानराशि को विनष्ट होने से बचाया जा सकता था । अतः यह समग्र घटनाचक्र अपने-आपमे एक नया अनुसधान मागता है । लगता है सघ की शक्ति सवल होती है । सघ ने ही अपने सरक्षण के लिए आचार्य को नियुक्त
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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