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________________ ७४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य किया है | आचार्य के लिए सघ नही बना है पर संघ की शक्ति आचार्य मे केन्द्रि होती है अत अन्तत निर्णायक आचार्य होते हैं। यही कारण है - समग्र सघ के द्वारा निवेदन करने पर आर्य भद्रवाहु ने चार पूर्वो की अर्थ वाचना देना भविष्य अलाम समझकर स्वीकार नहीं किया । दिगम्बर साहित्य मे प्राप्त उल्लेखानुसार दुष्काल के समय बारह हजार श्रमणो मे परिवृत भद्रबाहु उज्जयिनी होते हुए दक्षिण की ओर वढ गए। इन समय मम्राट् चन्द्रगुप्त को भद्रबाहु ने दीक्षा दी। यह जैन सम्राट् की अन्तिम दीक्षा थी। इसके बाद किसी राजा ने जैन मुनि दीक्षा ग्रहण नही की । यह घटना द्वितीय भद्रबाहु से सम्बन्धित है । इतिहास के लम्बे अन्तराल मे दो भद्रबाहु हुए है। दोनो के जीवन प्रसगो मे यह तथ्य स्पष्ट है । प्रथम भद्रबाहु का समय वी० नि० की द्वितीय शताब्दी है । द्वितीय भद्रबाहु का समय वीर निर्वाण की पाचवी शताब्दी के बाद का है। प्रथम मद्रवाह चतुर्दश पूर्वी तथा छेद सूत्र के रचनाकार है ।" द्वितीय भद्रवाह नियुक्तिकार तथा वराहमिहिर के भाई हैं । राजा चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध प्रथम मद्रबाहु के साथ न होकर द्वितीय भद्रबाहु के माथ है ! चन्द्रगुप्त मौर्य जो पाटलिपुत्र का राजा था वह प्रथम भद्रबाहु के स्वर्गवाम के बाद हुआ है । भद्रवाहु का स्वर्गवास वी० नि० १७० के लगभग है। एक सो पच्चास वर्षीय नन्द साम्राज्य का उच्छेद एव मौर्य शासन का प्रारम्भ वी० नि० २१० ( वि० पू० २६० ) के आसपास होता है । द्वितीय भद्रबाहु के साथ जो चन्द्रगुप्त गया था वह भवन्ति का राजा था, पाटलिपुत्र का नही । चन्द्रगुप्त को दीक्षा देने वाले भद्रवाह मी श्रुतकेवली नहीं थे, उनके पीछे कही श्रुतधर विशेषण नही आया है । द्वितीय भद्रबाहु निमित्त ज्ञानी थे ।' श्वेताम्बर परम्परा में उन्हे निमित्तवेत्ता और दिगम्बर परम्परा मे उन्हें चरम निमित्तधर विशेषण से विशेपित किया गया है । अत चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नो के फलादेश की घोषणा भी द्वितीय भद्रबाहु के साथ अधिक सगत है । वराहमिहिर का समय भी अब से १९००-२००० वर्ष पूर्व का है । अत वे प्रथम मद्रबाहु के अनुज न होकर द्वितीय भद्रबाहु के अनुज सिद्ध होते है । मौर्य शासक चन्द्रगुप्त और अवन्ति के शासक चन्द्रगुप्त तथा दोनो भद्रबाहु की घटनाओ मे नाम-सादृश्य के कारण सक्रमण हुआ प्रतीत होता है | दिगम्बर परम्परा प्रथम भद्रबाहु समय दो भद्रबाहु का होना स्वीकार करती है । उनके अनुसार एक भद्रबाहु ने नेपाल मे महाप्राणायाम ध्यान की साधना की थी तथा एक भद्रबाहु के साथ राजा चन्द्रगुप्त दक्षिण मे गया था । पर इतिहास उसका साक्षी नही है । स्थानाग सूत्र मे नो गणो का उल्लेख है । उनमे एक गौदास गण भी है । यह
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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