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________________ ७२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य हुई । यक्षादि साध्विया अपने स्थान पर लौट आयी। आर्य स्थूलभद्र वाचना ग्रहण करने के लिए आचार्य भद्रबाहु के चरणो मे प्रस्तुत हुए । अपने सम्मुख आर्य स्थूलभद्र को देखकर आचार्य भद्रवाहु ने उनसे कहा-"वत्स । ज्ञान का अह विकास मे बाधक है। तुमने शक्ति का प्रदर्शन कर अपने को ज्ञान के लिए अपान सिद्ध कर दिया है। अग्निम वाचना के लिए अब तुम योग्य नही रहे हो।" आर्य भद्रबाहु द्वारा आगम वाचना न मिलने पर उन्हे अपनी भूल समझ मे आयी। प्रमादवृत्ति पर गहरा अनुताप हुआ। भद्रवाहु के चरणो मे गिरकर उन्होने क्षमा याचना की और कहा-"यह मेरी पहली ही भूल हैं। इस प्रकार की भूल का पुनरावर्तन नहीं होगा । नाप मुझे वाचना प्रदान करे।" आचार्य भद्रबाहु ने किसी भी प्रकार से उनकी प्रार्थना स्वीकृत नहीं की। आर्य स्थूलभद्र ने पुन. नम्र निवेदन किया-"प्रभो । पूर्वज्ञान नाश होने को ही है, पर सोचता हू न मत्त शेपपूर्वाणामुच्छेदो भाव्यतस्तु स ॥१०९।। परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६ "श्रुत-विच्छिन्नता का निमित्त मैं न वनू अत पुन -पुन प्रणतिपूर्वक आपसे वाचना प्रदानार्थ आग्रह-भरी नम्र विनती कर रहा हू । अन्यथा आने वाली पीढी मेरा उपहास करेगी। मुझे उलाहना देगी। और कहेगी-'अह के वशीभूत होकर आर्य स्थूलभद्र ने ज्ञान ऋद्धि का प्रदर्शन किया था। इस हेतु से श्रुत-सम्पदा विनष्ट हुई।" आचार्य स्थूलभद्र को वाचना प्रदान की स्वीकृति प्राप्त कर लेने हेतु सकल सघ ने वार-बार विनती उनके सामने प्रस्तुत की। सवकी भावना सुन लेने के बाद समाधान के स्वरो मे दूरदर्शी आचार्य भद्रबाहु बोले-"गुणगण-मडित, अखडित आचारनिधिसम्पन्न मुनिजनो। मैं आर्य स्थूलभद्र की भूल के कारण ही वाचना देना स्थगित नहीं कर रहा हूँ। वाचना न देने का कारण और भी है, वह यह है-'मगध की रूपसी कोशा गणिका के बाहुपाश बन्धन को तोड देने वाला एव अमात्य पद के आमन्त्रण को ठुकरा देने वाला आर्य स्थूलभद्र श्रमण समुदाय मे अद्वितीय है । वह महान् योग्य है। इसकी शीघ्रग्राही प्रतिभा के समान कोई दूसरी प्रतिभा नही है। इसके प्रमाद को देखकर मुझे अनुभूत हुआ-समुद्र भी मर्यादा अतिक्रमण करने लगा है । उन्नत कुलोत्पन्न, पुरुषो मे अनन्य, श्रमण समाज का भूषण, धीर, गम्भीर, दृढमनोबली, परम विरक्त आर्य स्थूलभद्र जैसे व्यक्ति को भी ज्ञान मद आक्रान्त करने मे सफल हो गया है । आगे इससे भी मन्द सत्त्व साधक होगे । अत पानना के अभाव मे ज्ञानदान ज्ञान की अशातना भी है। भविष्य मे भी अवशिष्ट वाचना प्रदान करने से किसी प्रकार के लाभ की सभावना नही रह गयी है। "अस्यास्तु दोषदण्डोऽयमन्य शिक्षाकृतेऽपि हि ॥१०८।। परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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