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________________ ३८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य मन-तन से सबको अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है, पर हमारे सामने उसकी क्या हस्ती है ? समग्र कान्तार को कपा देने वाली पञ्चानन की दहाड के सामने क्या कोई टिक सका है ? पलक झपकते ही हम उसके प्रभाव को मिट्टी मे मिला देंगे ।' कुछ समय तक ऊहापोह कर लेने के बाद अपने-अपने शिष्य परिवार सहित वे ग्यारह विद्वान् अपनी अजेय शक्ति की घोषणा करते हुए क्रमश भगवान् महावीर के समवसरण मे पहुचे । वे अपनी ज्ञानराशि से सर्वज्ञ भगवान् महावीर को अभिभूत कर देना चाहते थे । उनका यह प्रयास मुष्टि-प्रहार से भीमकाय चट्टान को चूर्ण कर देने जैसा व्यर्थ सिद्ध हुआ । विशाल जनसमूह के बीच भगवान् महावीर उच्चासन पर सुशोभित थे । उनके तेजोद्दीप्त मुखमण्डल की प्रभा को देखते ही ब्राह्मण पण्डितो के चरण ठिठक गए, नयन चुधिया गए । हिमालय के पास खडे होने पर उन्हे अपने मे वौनापन की अनुभूति हुई । सहसाशु के महाप्रकाश मे उन्हे अपना ज्ञान जुगनूं की तरह फुदकता-सा लगा । अगाध ज्ञान सिन्धु के स्वामी ग्यारह ही पण्डित आत्मा, कर्मवाद, शरीर और चैतन्य का भिन्नाभिन्नत्व, पृथ्वी आदि मे भौतिकत्व अभौतिकत्व स्वरूप विवेक, परलोक मे तद्रूप प्राप्ति का भावाभाव, वन्ध-मोक्ष, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, पुनजन्म, निर्वाण सम्बन्धी एक-एक शका मे वैसे ही उलझे हुए थे जैसे हाथियो के मद को चूर्ण कर देने वाला शक्तिशाली शेर पेचदार लोहे की छोटी-सी जजीर मे उलझ जाता है। प्रथम सम्पर्क मे भगवान् द्वारा उच्चरित अपने नाम पुरस्सर मम्बोधन ने इन्द्रभूति गौतम को एक वार चौका अवश्य दिया था, पर तत्काल भीतर का दर्प बोल उठा, 'मुझे कौन नही जानता ?" सूर्य को अपने विज्ञापन की आवश्यकता नही होती । तदनन्तर भगवान् महावीर मे अपनी गुप्त शकाओ का रहस्योद्घाटन एव उनका सन्तोषप्रद समाधान पा इन्द्रभूति सहित क्रमश सभी पण्डितो का अभिमान हिम-खण्ड के पास रखे तापमापक यन्त्र के पारे की तरह नीचे उतर आया । वे भगवान् महावीर के चरणो मे फलो से लदी हुई शाखा की भाति झुक गये । पण्डितो ने जो कुछ पहले सोचा था, ठीक उसके विपरीत घटित हुआ । वे समझाने आए थे स्वय समझ गये । सिन्धु से विन्दु की तरह विराट् व्यक्तित्व मे उनका 'स्व' समाहित हो गया। सर्वतोभावेन भगवान् महावीर के चरणो मे समर्पित होकर उन्होने श्रमण धर्म की भूमिका मे प्रवेश पाया। भगवान् महावीर द्वारा यह पहला दीक्षा सस्कार वीर निर्वाण ३० (वि० पू० ५०० ) वर्ष पूर्व हुआ। चतुविध सघ स्थापना का यह प्रारम्भिक चरण था । 1 1 सयम साधना स्वीकार करने के वाद इन पण्डितो को गणधर लब्धि की प्राप्ति हुई । वे गणधर कहलाए और भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित उत्पाद, व्यय, धोव्यमयी त्रिपदी के आधार पर उन्होने भवाब्धि मे तरी तुल्य द्वादशागी
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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