SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण-सहस्राणु आचार्य सुधर्मा ३६ की रचना की। युग्म वाचना के समान होने के कारण ग्यारह गणधरो के नौ गण वने। उन्होंने अपने गण का सम्यक् सचालन किया। गणधर मडली मे सुधर्मा का स्थान पाचवा था। भगवान् महावीर की उपस्थिति में नौ गणधर राजगृह की पावन धरा पर निर्वाण को प्राप्त हो गए थे। भगवान् महावीर का निर्वाण वि०पू० ४७० मे हुआ। उस समय गणधर इन्द्रभूति गौतम अन्यत्र प्रबोध देने गए हुए थे । निर्वाण की सूचना प्राप्त होते ही छयस्थता के कारण उनका हृदय शोकविह्वल हो गया। चिन्तन गो धारा अन्तमुंडी वनी। चेतना के ज्वारोहण की अवस्था में मोह का दुर्भद्य आवरण टूटा। तदनतर ज्ञान-दशन वारक कर्माणुओ के क्षीण होते ही अखण्ड ज्ञान (केवल शान) की लौ उहीन हो गयी। ज्येष्ठ गणधर इन्द्रभूति गौतम मवंश वन गए । मवंश कभी परम्परा का वाहक नहीं होता। अत वीर निर्वाण के बाद सप के दायित्व को गणधर मुधर्मा ने सम्भाला। इस समय उनकी अवस्था अग्सी वर्ष मी भी। सर्वज्ञ प्रभु की मुखद मन्निधि में तीस वर्ष रहने के कारण विविध अनुभूनियो का सबल उनके पास था। भगवान् महावीर जैसे सबल आधार फे हिल जाने में एक बार सघ की नौका का टगमगा जाना स्वाभाविक था, पर मुधर्मा जैसे महान् भाचार्य का सुदृढ आलम्बन सघ के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। उम युग मे आजीवक प्रति इतर धर्म मप भी अपना वर्चस्व बढ़ा रहे थे और अपनी काठोर चर्या से जनमानम को प्रभावित कर रहे थे। इन गवके बीच भगवान महावीर की मत्यसधित्स दृष्टि एव म्याद्यादमयी नीति को प्रमुखता प्रदान कर आचार्य मुधर्मा ने जो नेतृत्व श्रमण मघ को दिया वह अद्भुत या, सुखद था। शैलमालाओं के उत्तुंग शिखर से छपते नितंर तणो या स्पर्ण पा ग्रीष्मकाल के तापनप्त व्यक्ति को जैमा मन्तोप होता है वैसा ही सतोप उनकी वाधाग को पीकर श्रमण-सघ को मिला था। दिगम्बर परम्परा इस उत्तरदायित्व को निभाने का श्रेय गणधर गौतम को देती है। जैन शामन आज आचार्य मुधर्मा का महान् आभारी है। आत्मविजेता भगवान् महावीर के उपपात में बैठकर उनकी भवसतापहारिणी, जनकल्याणकारिणी वाणी-मुधा में अपने मनीपा घट को भरा और हमारे लिए अगाध मागम-ज्ञानराशि को सुरक्षित रखा । वर्तमान मे एकादशाग की बागम मम्पदा आचाय मुधर्मा की देन है।' आचार्य मुधर्मा उम्र में भगवान महावीर मे आठ वर्ष ज्येष्ठ थे। ती का सम्यक् प्रवर्तन करते हुए उन्हे वानवे वर्ष की वृद्ध अवस्था में 'सर्वज्ञश्री' की उपलन्धि हुई । अविकल ज्ञान मे मठिन होकर प्रसर भास्वान् के ममान वे भारत वसुधा पर चमके । महम्रो सहस्रो व्यक्तियो को उनसे दिव्य प्रकाश प्राप्त हुआ।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy