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________________ ४०२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य है। आज आचार्य श्री तुलसी का अनुयायी नारी समाज अध्यात्म की गहराइयो व सामाजिक दायित्व को समझने लगा है। अखिल भारतीय तेरापथ महिला मडल के नाम से उनका अपना सवल सगठन है। आचार्य श्री के नेतृत्व मे प्रतिवर्ष उनका वार्षिक सम्मेलन होता है। इसमे आज की प्रशिक्षित नारिया नारी समाज की विभिन्न गतिविधियो के सन्दर्भ मे चिन्तन करती है और साम्य योगी, परम् कारुणिक, नारी-उद्धारक आचार्य श्री तुलसी से प्रेरणा पाती है। आचार्यश्री तुलसी की प्रवृत्तिया सर्वजनहिताय हैं। वर्णभेद, वर्गभेद, जातीयता और प्रान्तीयता की दीवारे कभी उनके कार्य क्षेत्र मे खडी न हो सकी। उन्होने एक ओर धनाधीशो को बोध दिया तथा दूसरी ओर दलित वर्ग के हृदय की हीन अन्थियो का विमोचन किया है। दलित वर्ग सस्कार-निर्माण उनके मानवतावादी दृष्टिकोण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य मे विराट् हरिजन सम्मेलन भी हुए है । उन्होने उन सम्मेलनो को हरिजनोद्धार सम्मेलन नही मानवोद्धार सम्मेलन कहा है। आचार्य श्री तुलसी जैन श्वेताम्बर तेरापथ सप्रदाय का सचालन कर रहे हैं, पर उन्होने सघ-विस्तार से अधिक मानवता की सेवा को प्रमुख माना है। बहुत वार वे अपने परिचय देते समय कहते है, "मैं पहले मानव हू, फिर जैन और फिर तेरापथी हू।" आचार्य श्री तुलसी के विचारोकी यह उन्मुक्तताएव व्यवहार मे अनाग्रही प्रवृत्ति उनके गरिमामय व्यक्तित्व की सकेतक है। वे धर्म के आधुनिक भाष्यकार है। उन्होने धर्म के क्षेत्र में नए मूल्यो की प्रतिष्ठा की है। जो धर्म परलोक-सुधार की बात करता था उसे इहलोक के साथ जोडा है। उनकी परिभापा मे वह धर्म धर्म नहीं है जिसमे वर्तमान क्षण को आनन्दमय बनाने की बात नही है। उन्होने जैन धर्म को जन-जन का धर्म कहकर जनतन्त्रीय व्यवस्था मे धर्म का लोकप्रिय रूप प्रस्तुत किया है। यह जैन संघ की सर्वव्यापी प्रभावना है। पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण तक भारत के अधिकाश भूभाग में विशाल श्रमण संघ के साथ विहरण कर आचार्य श्री तुलसी ने जैन धर्म की जो प्रभावना की है वह जन-अजैन सभीके द्वारा सहज समादत हुई है। उनकी निष्पक्ष धम प्रचारकनीति, उच्चस्तरीय साहित्य-निर्माण, उदार चिंतन एव विशुद्ध अध्यात्म 'भाव ने सभीको अपनी ओर आकृष्ट किया है। आचार्यश्री की पजाब, बगाल आदि प्रलम्बमान यात्राओ मे दक्षिण की यात्रा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राकृतिक सौन्दर्य का धनी, भारतीय संस्कृति का पुजारी, पहाडियो से गर्वोन्नत, नहरो से परिपूरित, झरनो से अभिषिक्त, प्रकृति नदी का क्रीडा स्थल, हरियाली से हरा-भरा, वसन्त की तरह सरसन्ज, वृक्षो से झूमता,
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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