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________________ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ४०३ पक्षियो से चहकता, सुमनो से महकता, नील गुलावी शाल ओढे, विशाल वनो मे परिवृत्त दक्षिण भारत भौतिक सम्पदा से सम्मन्न है और अध्यात्म-वैभव से भी समृद्ध है। इस धरती की सुविशाल नदियो के कल-कल निनाद ने सुदूर के पर्यटको, व्यापारियो व शिक्षा-पिपासु हृदयो को खीचा है, दूसरी ओर अध्यात्म-उपासको ने धर्माचार्यो का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। कभी यहा जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव चारो सरिताएं एकसाथ बहती थी। जैन धर्म का जन्म उत्तर मे हुआ। उसका पल्लवन दक्षिण भारत मे हुआ। अनेक जैनाचार्यों ने दक्षिण भारत मे अध्यात्म को सिंचन दिया है। सहस्रो वर्ष पूर्व इसी पावन धारा पर आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) श्रमण परिवार सहित पधारे थे। ऐसा इतिहासकारो का मत है । आचार्य श्री तुलसी ने दक्षिण भारत को अपने चरणो से पवित्र कर आचार्य भद्रवाह के इतिहास को पुनरुज्जीवित कर दिया। आचार्य भद्रवाहु दक्षिण के कुछ ही भाग को अपने चरणो से पवित्र कर स्पर्श कर पाए थे। आचार्य श्री तुलसी के चरण अनेक प्रमुख स्थलो का स्पर्श करते हुए कन्या कुमारी तक पहुचे । उन्होने गाव-गाव व शहर-शहर मे जाकर जन-जन को भगवान महावीर का पावन सदेश सुनाया व घर-घर मे अध्यात्म की लौ प्रज्वलित की। अणुव्रत आदोलन के माध्यम से मानवता की दिशा को उजागर करने की दिशा में यह सर्वोन्नत चरण था। दक्षिण यात्रा की सम्पन्नता पर महायशस्वी आचार्य श्री तुलसी को उनके द्वारा विहित जन-कल्याणकारी कार्यों के परिणामस्वरूप संघ ने युगप्रधान पद से अलकृत किया। वर्तमान मे उनका विराट् व्यक्तित्व अणुव्रत प्रभृति व्यापक कार्यो की भूमिका पर राष्ट्रीय व अतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करता हुआ जन-जन के मानस मे अकित हो गया है। वालक तुलसी से ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुनि तुलसी के रूप मे परिवर्तन, वाईस वर्ष की अवस्था में आचार्य पदारोहण, सघ-सचालन की दिशा मे स्वभगिनी स्वर्गीया साध्वीश्री लाडा जी की एव वर्तमान मे विदुपी साध्वीश्री कनकप्रभा जी की साध्वी-प्रमुखा पद पर नियुक्ति, धर्मशासन की प्रभावना मे बहुमुखी प्रयास, चौतीस वर्ष की अवस्था मे अणुव्रत आन्दोलन के रूप में मानवता-जागरण का अभियान, नतिक भागीरथी को प्रवाहित करने के लिए ससघ इस महायायावर की सहस्रो मील की पदयात्राए, आचार्य-काल के पच्चीस वर्प सम्पन्न होने के उपलक्ष्य मे डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् द्वारा सम्मानस्वरूप उन्हे तुलसी अभिनन्दन ग्रथ का समर्पण, दक्षिणाचल की चतुर्वपीय सुदीर्घ यात्रा की सम्पन्नता पर वी०नि० २४६७ (वि० स० २०२७) मे लगभग वीस हजार मानव-मेदिनी के बीच युगप्रधान के रूप मे उनका
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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