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________________ १४. चिन्मय चिराग आचार्य विजयराजेन्द्र विजयराजेन्द्र सूरिश्वर जी सौधर्म वृहत्तपोगच्छीय श्वेताम्बराचार्य थे। वे अनेक भाषाओ के विज्ञ और महान् साहित्यकार थे । अभिधान राजेन्द्र कोष उनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। विविध सामग्री से परिपूर्ण इस कोप को समग्र जैन वाड्मय मे अपना अनूठा स्थान प्राप्त है। उनकी शिष्य मडली मे इतिहास-प्रेमी, व्याख्यान-वाचस्पति यतीन्द्रविजय जी ये। यतीन्द्रविजय जी की दीक्षा वी० नि० २४२४ (वि० १६५४) आषाढ कृष्णा द्वितीया सोमवार को खाचरोद मे हुई थी। उन्होने विजयराजेन्द्र सूरि जी की सन्निधि मे बैठकर सस्कृत, प्राकृत भाषा का अध्ययन किया और अभिधान राजेन्द्रकोष की रचना मे आठ वर्ष तक सह-सम्पादक के रूप मे रहकर उन्होने सफलतापूर्वक काम किया। ___काल किसीके लिए एक क्षण भी प्रतीक्षा नहीं करता । विजयराजेन्द्र सूरिश्वर जी कोष-निर्माण मे निष्ठा के साथ लगे थे। कोष-निर्माण का कार्य पूर्ण नहीं हो पाया उससे पहले ही काल ने आकर उनके जीवन-द्वार पर दस्तक लगा दी। __ वे वी० नि० २४३३ (वि० १९६३) मे पौप शुक्ला षष्ठी शनिवार को स्वर्गवासी हो गए और उनका महान् स्वप्न अधूरा रह गया। - उनके स्वर्गवास के पश्चात कोप-निर्माण का कार्य विद्वान् सत दीपविजय जी और यतीन्द्रविजय जी की देख-रेख मे चलता रहा । सात भागो मे पूर्ण वह राजेन्द्र कोष वी० नि० २४४२ (वि० १९७३) मे 'राज सस्करण' की अभिधा से अलकृत होकर जनता के सामने आया और शोध पाठको के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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