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________________ १२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य उन्होने कहा-"शिष्य । श्रुत का कभी गर्व मत करना। तीयंकरो के पास जितना ज्ञान था उतना गणधरो के पास नहीं था। गणधरो का सम्पूर्ण ज्ञान आचार्य नहीं ले सके । हमारे पूर्वाचार्यों के पास जो था वह पूर्णत हमारे पास नहीं है । धूलि को मुट्ठी में भरकर एक स्थान से दूमरे स्थान पर प्रक्षेप करते रहने पर वह हमेशा कम-कम होती जाती है।" आचार्य कालक की ये प्रवृत्तिया श्रुतज्ञान को परिपुष्ट करने वाली हैं। शिष्य-प्रशिष्यो को अनुयोग प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य आचार्य कालक ने किया है । आचार्य पादलिप्त और आचार्य खपुट भी आचार्य कालक की भाति इस युग के विशिष्ट प्रभावोत्पादक विद्या के धनी थे। आचार्य पादलिप्त ने प्रतिष्ठानपुर के राजा मुरुण्ड को, मानखेटपुर के राजा भीम को, ओकारपुर के राजा कृष्ण को प्रभावित कर उन्हे जैन शासन के प्रति दृढ आस्थाशील बना दिया । आचार्य खपुट ने भी गुडशस्त्रपुर नरेश को विद्यावल से झुका लिया। अतिशय विद्या के धनी आचार्य कालक, खपुट और पादलिप्त का जीवनइतिहास प्रस्तुत श्रुतकाल में समाहित है। इन आचार्यों की मुख्य प्रवृत्ति आगमिक नही थी पर विद्यावल से जैन धर्म के प्रसार मे अनुकूल वातावरण का निर्माण कर प्रकारान्तर से इन्होने आगम प्रवृत्ति का निर्वाध पथ प्रशस्त किया था। पूर्वो की परम्परा का विच्छेद-क्रम ___ दशपूर्वधारी दश आचार्य हुए हैं। उनमे प्रथम दशपूर्वधर आचार्य महागिरि एव द्वितीय दशपूर्वधर आचार्य सुहस्ती थे। विलक्षण वाग्मी आर्य ववस्वामी अन्तिम दशपूर्वधर थे। उनका स्वर्गवास वी०नि० ५८४ (वि० स० ११४)मे हुमा। उन्हीके साथ दशपूर्वधर की धारा विलुप्त हो गई थी। दिगम्बर परम्परा के अनुसार दशपूर्व की ज्ञान सम्पदा वी० नि० १०३ (वि० पू० २८७) वर्ष तक सुरक्षित रही। धर्मसेन अन्तिम दशपूर्वधर थे। श्रुतधर आचार्य वज्रस्वामी के पास आर्यरक्षित ने नौ पूर्व पूर्ण एव दशमपूर्व का अर्धभाग ग्रहण किया था । दृष्टिवाद को पढने की प्रेरणा आर्यरक्षित को माता रुद्रसोमा से प्राप्त हुई थी। क्षीण होती हुई पूर्वज्ञान की धारा को सुरक्षित रख लेने के प्रयत्नो मे नारी द्वारा पुरुप को दिशावोध आगम युग की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है । साहित्य लेखन की निष्पक्ष धारा मे कभी यह पहल विस्मृत नहीं किया जा सकता । आर्यरक्षित का स्वर्गवास वी० नि० ५९२ (वि० १२२) के आसपास हुआ था। आर्य दुर्वलिकापुष्यमिन नौ पूर्वधर थे। दुर्वलिकापुष्यमित्र का स्वर्गवास वी० नि० ६१७ (वि० १४७) है। उनके बाद नौ पूर्व के ज्ञाता भी नही रहे, पर पूर्वज्ञान की परम्परा वी० नि० १००० वर्ष तक सुरक्षित रही
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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