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________________ १० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य आचार्य स्थूलभद्र के साथ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य था। आचार्य सुहस्ती के साथ सम्राट सम्प्रति का, आचार्य सिद्धसेन के साथ विक्रमादित्य द्वितीय का, आचार्य समन्तभद्र के साथ शिवकोटि महाराज का, आचार्य पूज्यपाद के साथ सम्राट् अमोधवर्ष का, आचार्य बप्पभट्टि के साथ आमराजा का, आचार्य हेमचन्द्र के साथ जयसिंह सिद्धराज तथा चालुक्य कुमारपाल का और आचार्य हीरविजयजी व जिनचन्द्र सूरि के साथ वादशाह अकबर का इतिहास गौरवमय शब्दो मे लिखा हुआ है पर महाराज खारवेल का उल्लेख इस लम्बी शृखला में कही और किसी आचार्य के साथ नहीं हुआ। इससे इतिहासकारो ने सम्राट् खारवेल को पाश्वापत्यिक संघ का अनुयायी माना है। जैन प्रचार-प्रसार का व्यापक रूप में जो कार्य कलिंगाधिपति खारवेल ने किया वह वास्तव मे अद्वितीय था। अपने समय मे उन्होने एक वृहद् जैन सम्मेलन का आयोजन किया जिसमे आस-पास के अनेक जैन भिक्षु, आचार्य, विद्वान् तथा विशिष्ट उपासक सम्मिलित हुए। सम्राट् खारवेल को उसके कार्यों की प्रशस्ति के रूप मे धम्मराज, भिक्खराज, खेमराज जैसे शब्दो से सम्बोधित किया गया। हाथीगुफा (उडीसा) के शिलालेख मे इसका विशद वर्णन है। हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार महामेघवाहन भिक्षुराज खारवेल सम्राट ने कुमारी पर्वत पर यह श्रमण सम्मेलन आयोजित किया था। इस सम्मेलन में महागिरि परपरा के बलिस्सह, वौद्धिलिंग, देवाचार्य, धर्ममेनाचार्य, नक्षत्राचार्य आदि २०० जिनकल्प तुल्य साधना करने वाले श्रमण एव आर्य सुस्थित, आर्य सुप्रतिवुद्ध, उमास्वाति, श्यामाचार्य आदि ३०० स्थविरकल्पी श्रमण थे। आर्या पोइणी आदि ३०० साध्विया, भिखुराय, चूर्णक, सेलक आदि ७०० श्रमणोपासक और पूर्णमित्रा आदि ७०० उपासिकाए विद्यमान थी। __ श्यामाचार्य ने इस अवसर पर पन्नवणा सूत्र की, उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र की और स्थविर आर्य बलिस्सह ने अगविद्या प्रभृति शास्त्रो की रचना की थी। वलिस्सह, उमास्वाति, श्यामाचार्य आदि स्थविर श्रमणो ने खारवेल सम्राट की प्रार्थना से सुधर्मा रचित द्वादशागी का सकलन किया एव भोजपन, ताडपत्र और वल्कल पर उसे लिपिवद्ध कर आगम वाचना के ऐतिहासिक पृष्ठो मे महत्त्वपूर्ण अध्याय जोडा। श्रमण वर्ग ने धर्मोन्नति हेतु मगध, मथुरा, वग आदि सुदूर प्रदेशो मे विहरण करने की प्रेरणा सम्राट् खारवेल से इसी सम्मेलन मे प्राप्त की थी। प्रस्तुत सम्मेलन की मुख्य प्रवृत्ति आगम वाचना के रूप मे निष्पन्न हुई। सम्राट् खारवेल वी०नि० ३०० (वि० पू० १७०) के आसपास सिंहासन
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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