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________________ १६० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य दुर्गम था। आर्यरक्षित ने स्वल्प समय मे ही इस ग्रथ के २४ यव पढ लिए थे। उनका अध्ययन विषयक प्रयास अद्भुत था । ___ इधर दशपुर मे रुद्रसोमा को पुत्र की स्मृति वाधित करने लगी। उसने सोचा, घर मे दीपक की तरह प्रकाश करने वाला पुत्र चला गया। इससे सारा वातावरण अधकारमय हो गया है। सोमदेव का परामर्श लेकर रुद्रसोमा ने कनिष्ठ पुत्र फल्गुरक्षित से कहा-"पुन । मेरा सदेश लेकर ज्येष्ठ भ्राता के पास जाओ। उनसे कहना-'भ्रात | आपने जननी का मोह छोड दिया है पर जिनेन्द्र भगवान ने भी वात्सल्यभाव को समर्थन दिया था और गर्भावास में माता के प्रति अपूर्व भक्ति प्रदर्शित की थी। अत आप भी माता को दर्शन देने की कृपा करे। हो सकता है आपने जिस मार्ग को स्वीकारा है आपका परिवार भी उस मार्ग पर चलने के लिए प्रस्तुत हो। आप मे मोहबुद्धि नही है। पर मा के उपकार को स्मरण करते हुए एक बार पधारकर उनके सामने कृतज्ञ भाव प्रकट करे। माता का आशीर्वाद ले।' ___ मा का आदेश प्राप्त कर नम्राग फल्गुरक्षित आर्यरक्षित के पास गए एव मा की भावना को प्रस्तुत करते हुए वोले-"आपके दर्शन से पूज्या मा को अमृतपान जैसी तृप्ति होगी।" सयम साधना में सावधान, विवेकशील, अन्तर्मुखी आर्य रक्षित ने फल्गुरक्षित के द्वारा रुद्रसोमा की अन्वेंदना को अनासक्त भाव से सुना और उन्होने अत्यन्त वैराग्यमयी भापा मे कहा-'फल्गुरक्षित । इस अशाश्वत ससार से क्या मोह है ? तुम्हारा भी सच्चा मोह मेरे प्रति है तो मुनि-जीवन स्वीकार कर अनवरत मेरे पास रहो।" श्रेय कार्य मे विलम्ब श्रेष्ठ नही होता, यह सोच फल्गुरक्षित ने भाई की वात को सम्मान देते हुए तत्क्षण दीक्षा स्वीकार कर ली। यविकाओ का अविरल अध्ययन करते हुए एक दिन आर्यरक्षित ने आर्य वज्र स्वामी से पूछा "भगवन् । अध्ययन कितना अवशिष्ट रहा है ?" आर्य वन स्वामी गभीर होकर वोले-"यह प्रश्न पूछने से तुम्हे क्या लाभ है ? तुम दत्तचित्त होकर पढते जाओ।" थोडे समय के बाद यही प्रश्न पुन आर्यरक्षित ने आर्य वज्र स्वामी के सामने प्रस्तुत किया। वज्र स्वामी ने कहा-"वत्स | तुम सर्षप मात्र पढे हो, मेरु जितना शेष पडा है। तुम अल्प मोहवश पूर्वो के अध्ययन को छोडने की सोच रहे हो यह काजी के बदले क्षीर को, लवण के बदले कर्पूर को, कुसुम के बदले कुकुम को, गुजाफल के बदले स्वर्ण को परित्यक्त करने जैसा है।" गुरु का प्रशिक्षण पाकर आर्यरक्षित पुन अध्ययन मे स्थिर हुए और नवपूर्वो का पूर्ण भाग एव दसवे पूर्व का अर्धभाग उन्होने सम्पन्न कर लिया। आर्य फल्गुरक्षित पुन -पुन ज्येष्ठ भ्राता को माता की स्मृति कराते रहते थे। दृष्टिवाद के अथाह ज्ञान को धारण कर लेने में एक दिन आये रक्षित का धैर्य डोल उठा । उन्होने वज्र स्वामी से निवेदन किया-"मुझे दशपुर जाने का आदेश प्राप्त हो, मै शेष अध्ययन के लिए लौटकर शीघ्र ही आने का
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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