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________________ अक्षयकोष जाचार्य आर्य रक्षित १६१ प्रयास करगा।" मार्ग वा ने ज्ञानोगयोग से जाना-मेरा आयुप्य कम है। आर्यरक्षित का मेरे में पुन मिनन होना जरा गय है। दूसरा कोई योग्य व्यक्ति ज्ञानसिन्धु-दृष्टिवाद को ग्रहण करने मे नमर्थ नहीं है । दसवा पूर्व मेरे तक ही सुरक्षित रह पायेगा। ऐमा ही न्याट दोस "हा है। जार्ग बच गम्भीर होकर बोले-"यत्म । परस्पर उच्चावच्च व्यवहार के लिए 'मिच्छामि दुरल्ड' है। तुम्हे जैना गुण हो वैसा करो। तुम्हारा मार्ग शिवानुगामी हो।" गुरु का आदेश प्राप्त हो पर उन्हे बदन कर आर्यरक्षित फन्गुरक्षित के साथ यहा ने चल पडे। शुद्ध नयमपूर्वर यात्रा करते हा बन्यु महित आर्यरक्षित पाटलिपुत्र पहुचे । दीक्षाप्रदाता जातोपलिपुन ने प्रसन्नतापूर्वक मिले एव मा नव पूर्वो के अध्ययन पी बात कही। पूर्वधर आर्यरक्षित को मर्वया योग्य ममतार आर्य तोपलिपुत्र ने जाचार्य पद पर उनकी नियुति की। ____ आरक्षित ने दशपुर की ओर प्रधान किया। मुनि फगुरक्षित ने आगे जाकर मा को आरक्षित के आगमन की गूनना दी। ज्याठ पुत्र के दर्शनार्थ उत्कटित जननी रुद्रमोमा पुत्रागमन की प्रतीक्षा कर ही रही थी । आर्यरक्षित आ पहुचे। पिता मोमदेव को अपने पुत्रो का यह सीधा आगमन अच्छा नहीं लगा। वे चाहते थे, महान उत्सव के साथ दोनो पुत्री का नगर प्रवेश होता। सोमदेव ने विशेष स्वागताय दोनो पुत्री को नगर के बाहा उपान में लौट जाने को कहा पर नार्यरक्षित ने इस बात की स्वीकृति नहीं दी। पिता मोमदेव का दूसरा प्रस्ताव या--"पुन । बमण वेण को छोडकर द्वितीय आश्रम गृहस्थ जीवन की साधना करी और म्प यौवनसम्पन्ना योग्य कन्या के माथ महोत्सवपूर्वक श्रीत विधि से विवाह करने के लिए प्रस्तुत बनो। तुम्हारी माता को भी इसमे आनन्द प्राप्त होगा । गृहस्थ जीवन की गाडी को वहन करने के लिए धनोपार्जन की चिन्ता तुम्हे नहीं करनी होगी। पूज्य नृपवर की कृपा से सात पीढी सुख से भोग मके इतना द्रव्य मेरे पास है।" ___ अध्यात्म-साधना मे रन आर्यरक्षित ने राजपुरोहित पिता सोमदेव मे कहा"मनीपी-मान्य, विज्ञ | शास्त्रो का दुर्धर भार ही वह्न कर रहे हो, जीवन के यथार्य को नहीं पहचाना है । जन्म-जन्म मे माता-पिता, भ्राता-भगिनी, पत्नी सुता आदि अनेक बार ये मवध हुए है, इनमे क्या आनद है ? राज-प्रसाद को भी भृत्य रूप मे रहकर अजित किया है इसमे भी गर्व किस वात का? अर्थ-सम्पदा अनर्थ की जननी है, बहु उपद्रवकारिणी है। मनुष्यजन्म रत्न की तरह दुप्प्राय है। गृहमाह मे फमकर विज्ञ मनुष्य इसको खोया नहीं करते। मेरा दृष्टिवाद का पठन भी पूर्ण नहीं होपाया है । मे यहा कैसे रुक सकता ह? आपका मेरे प्रति सच्चा अनुराग मै तभी समझूगा, आप दीक्षा स्वीकार करे।"
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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