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________________ अक्षयकोप आचार्य आर्यरक्षित १५६ गुरु थे। उन्होने आर्य रक्षित को गाढ स्नेह प्रदान करते हुए कहा - "आर्यरक्षित । पूर्वो को पढने की तुम्हारी अभिलाषा भद्र है, प्रशसनीय है। तुम्हारा यहा आना उचित समय पर हुआ । मेरी मृत्यु का समय निकट है। अनशन की स्थिति मे मेरे पास रहकर तुम सहायक (निर्यामक) बनो । कुलीन व्यक्तियो का यही कर्त्तव्य होता है ।" आर्य तोपलि पुत्र का निर्देश पाकर आर्यरक्षित ने परम प्रसन्न मन से स्वय को सेवा धर्म मे नियुक्त कर दिया - परम समाधि मे लीन, अनशन मे स्थित भद्रगुप्त ने एक दिन प्रसन्न मुद्रा मे कहा - " तुमने मेरी इतनी अच्छी परिचर्या की है जिससे सुधा एव तृपा की खिन्नता मी मुझे अनुभूत नही हुई । मैं तुम्हे एक मार्ग-दर्शन देता हू । तुम वच्च स्वामी के पास पढने के लिए जाओगे पर भोजन एव जयन की व्यवस्था अपनी पृथक् रूप से रखना । क्योकि आार्य वज्र की जन्मकुडली (जन्मपत्रिका) का योग है - जो भी नवागन्तुक व्यक्ति उनकी मडली मे भोजन करेगा और आर्य वज्र स्वामी के पाम रात्रि शयन करेगा वह उन्ही के पास पचत्व को प्राप्त होगा। तुम शासन के प्रभावक बनोगे, सघाधार बनोगे अत यह उपदेश मै तुम्हे दे रहा हू ।" आर्यरक्षित ने शीश झुकाकर 'आम्' - - इति — कहकर अत्यन्त विनीत भाव से आ तोपलिपुत्र के मार्ग दर्शन को स्वीकार किया। समाधिपूर्ण अवस्था मे आर्य भद्रगुप्त के स्वर्गगमन के पश्चात् आर्यरक्षित ने वज्र स्वामी की दिशा मे अध्य नार्थ प्रस्थान कर दिया । वहा पहुचते ही आर्य वज्र स्वामी के पास न जाकर रात्रि मे सोने की व्यवस्था उन्होने अपनी अलग की। आयं वज्र स्वामी ने ढलती रात मे स्वप्न देखा - दूध से भरा कटोरा नवागन्तुक पथिक आकर पी गया है पर कुछ पय उसमे अवशेष रह गया है । प्रात होते ही स्वप्न की यह बात वज्र स्वामी ने अपने शिप्यो से कही। वार्तालाप के यह प्रसग पूर्ण भी नही हो पाया था कि तभी अपरिचित अतिथि ने आकर वज्र स्वामी को वन्दन किया। आर्य वज्र स्वामी ने पूछा - "तुम कहा से आ रहे हो ?" आर्यरक्षित वोले "मैं आर्य तोपिल पुत्र के पास से आ रहा हू ।" दूरदर्शी, सूक्ष्मचिन्तक आर्य वज्र स्वामी ने कहा - "तुम आर्य रक्षित हो ? अवशिष्ट पूर्वो का ज्ञान करने के लिए मेरे पास आए हो? तुम्हारे उपकरण, पात्र, सस्थारक कहा है ? उनको यही ले आओ । आहार- पानी की व्यवस्था यहा बनाकर अध्ययन कार्य को प्रारम्भ करो। पृथक् रहने से पूर्वो का अध्ययन कैसे कर पाओगे ?" आरक्षित ने आर्य भद्रगुप्त द्वारा प्रदत्त मार्ग-दर्शन को कह सुनाया और अपनी पृथक् रहने की व्यवस्था भी बता दी । वज्र स्वामी ने भी ज्ञानोपयोग से समग्र स्थिति को जाना और आर्य भद्रगुप्त के निर्देशानुसार उनके पृथक् रहने की व्यवस्था को स्वीकार कर लिया । दृष्टिवाद का पाठ विविध भागो, पर्यायो एव गभीर शब्दो के प्रयोग से अत्य
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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