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________________ १५८ जैन धर्म के प्रभावमा आचार्य रहे है', जाओ पुन । उनके पाग अध्ययन प्रारम करो। तुम्हारी इस प्रवृत्ति से अवश्य ही मुझे शाति की अनुभूति होगी।" मा का आशीर्वाद पाकर दूसरे दिन प्रात काल होते ही आरक्षित ने इनवाटिका की ओर प्रस्थान कर दिया 1 नगर के वहिर्मुभाग में उन्हे पिता का मित्र वृद्ध ब्राह्मण मिला । उसके हाथ में है इक्षुदण्ड पूर्ण थे। दशवा आधा था । इक्षु का यह उपहार रोकर वह आर्यरक्षित मे मिन्नने ही आ रहा था। सयोगवश मित्रपुन्न को मार्ग के मध्य में ही पाकर वह प्रसन्न हुआ। आर्यरक्षित ने उनका अभिवादन किया। पिता-मिन वृद्ध माह्मण ने भी प्रीति-वश उन्हें गाढ आलिंगन में वाध लिया। आर्यरक्षित ने कहा- मैं अध्ययन करने के लिए जा रहा है । आप मेरे वधु जनो की प्रमत्ति के लिए उनमे पर पर मिने।" आर्यरक्षित ने अनुमान लगाया-इसवाटिका की ओर जाते हुए मुझे मानव इक्षुदण्डो का उपहार मिला। इस आधार पर मुझे दृष्टिवाद ग्रथ के माध नव परिच्छेदो की प्राप्ति होगी, इससे अधिक नहीं।' उल्लाम के साथ आरक्षित अनुवाटिका मे पहुचे। ढड्ढर धावक को वदन करते देख उन्होंने उसी भाति आर्य तोपलिपुन को वदन किया। श्रावकोचित क्रियाकलाप से अज्ञात नवागतुक व्यक्ति को विधियुक्त वदन करते देख आर्य तोपलि पुत्र ने पूछा-"वत्सतुमने यह विधि कहा से सीखी?" आर्यरक्षित ने ढढर श्रावक की ओर सकेत किया और अपने आने का प्रयोजन भी बताया । आर्य तोपलि पुन ने ज्ञानोपयोग में जाना-"श्रीमद् वज्र स्वामी के बाद यह वालक महा प्रभावी होगा।" नवागतुक आर्यरक्षित को सबोधित करते हुए उन्होने कहा"दृप्टिवाद का अध्ययन करने के लिए मुनि वनना आवश्यक है। आर्य रक्षित में ज्ञान पिपामा प्रवल थी। वे श्रमण दीक्षा स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हुए और गुरु चरणो मे उन्होने नम्र निवेदन किया-"आर्य । मिथ्या मोह के कारण लोग मेरे प्रति अनुरागी है। जैन मस्कारो से अज्ञात पारिवारिक जनो का ममकार (ममत्व) भी दुस्त्याज्य है। मेरे श्रमण वनने का वृत्तात ज्ञात होने पर राजा के द्वारा भी मुझे शक्ति-प्रयोग मे घर ले जाने के लिए विवश किया जा सकता है । इस प्रकार की घटना से किसी प्रकार जैन शासन की लघुता न हो इस कारण मुझे दीक्षा प्रदान करते ही अन्य देश मे विहरण करना उचित होगा। आर्य तोपलिपुत्र ने ममग्र वातो को ध्यान से सुना और ईशान कोणाभिमुख आर्यरक्षित को सामायिक व्रत का उच्चारण करते हुए वी० नि०५४४ (वि०७४) मे दीक्षा प्रदान कर वहा से अन्यत्न प्रस्थान कर दिया। कालातर मे अपनी ज्ञाननिधि को पूर्णत प्रदान कर देने के बाद आर्य तोषलि पुन ने उनको अगिम अध्ययन के लिए आर्य वज्रस्वामी के पास भेजा। ___ गुरु के आदेशानुसार आर्यरक्षित वहा से चले। मार्गान्तरवर्ती नगर अवन्ति मे आचार्य भद्रगुप्त से उनका मिलन हुआ। आचार्य भद्रगुप्त वज्र स्वामी के विद्या
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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