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________________ विलक्षण वाग्मी आचार्य वज्र स्वामी १४७ एस अखडियसीलो, बहुस्सुओ एस एस पसमड्ढो। - एसो य गुणनिहाण, एय सरित्थो परो नत्थि ॥४८॥ (उपदेशमाला विशेष वृत्ति, पृ० २१४) -अखडित शील, बहुश्रुत प्रशात भाव से सम्पन्न, गुणनिधान आर्य वज्र के समान दुनिया मे कोई दूसरा पुरुष नहीं है । "वइरस्स गुणे सरइदुनिम्मले" उनके -गुण शरच्चन्द्र की भाति निर्मल है। रुक्मिणी वज्र स्वामी के यशोगान श्रवण मात्र से उनके व्यक्तित्व एव रूप-सौदर्य पर मुग्ध हो चुकी थी। पिता के सामने भी अपने विचार प्रस्तुत करते हुए उसने स्पष्ट कह दिया-"तात । जइ मज्झ वरो वइरो, हो ही ताह विवाहमीहेमि । जालाजालकरालो, जलणो मे अन्न हा सरण ॥२५०॥ • (उपदेशमाला विशेष वृत्ति, पृ० २१४) "मैं वज्र स्वामी के साथ पाणिग्रहण करूगी, अन्यथा अग्नि की जाज्वल्यमान ज्वालाओ की शरण ग्रहण कर लूगी। उत्तम कुल की कन्याए कभी दो बार वर का चुनाव नही किया करती।" पुत्री के द्वारा अग्निदाह की बात सुनकर वात्याचक्र के तीन झोको से प्रताडित पीपल के पत्ते की भाति धन श्रेष्ठी का दिल काप गया। साहिति साहुणीओ, जहा न वइरो विवाहेइ ॥५१॥ (उप० वृत्ति, पृ० २१४) रुक्मिणी को साध्वियो ने वोध देते हुए कहा- "आर्य वन श्रमण हो चुके है वे विवाह नही करेंगे।" रुक्मिणी दृढ स्वरो मे बोली, "मुझे भी प्रवजित होना स्वीकार है । आर्य वज्र के अतिरिक्त मेरा कोई वर नही होगा।" आर्य वज्र को पा लेने की प्रतीक्षा मे रुक्मिणी अपने दृढ सकल्प का वहन करती रही । तपस्या निष्फल नही जाती । दृढसकल्प शक्ति भी एक दिन अवश्य फलवान् होती है। कुछ समय के वाद आचार्य वज्र स्वामी का आगमन रुक्मिणी के सौभाग्य से पाटलिपुत्र मे हुआ। वह उनके दर्शन को उत्सुक वनी। सकल्प की बात पिता के सामने दुहराती हुई वोली--"श्रीमद् वज्राय मा यच्छ शरण मे अन्यथानल-तात | मेरी मनोकामना पूर्ण करने का अवसर आ गया है। आर्य वज्र यहा पहुच चुके है । मुझे आप उन्हें समर्पित कर दे, अन्यथा मै अग्निदाह कर लूगी।"पुत्री के सकल्प से श्रेष्ठी धन एक बार पुन सिहर उठा । वह शत-कोटि सम्पदा के साथ रुक्मिणी कन्या को लेकर वन स्वामी की परिपद् मे पहुचा। ___ आर्य वज्र स्वामी के द्वारा प्रदत्त प्रथम देशना की प्रशसा सुनकर अत पुर मे हलचल हुई। रानिया भी आर्य वज्र के रूप-सौदर्य को देखने एव मधुर वाणी का रसास्वाद प्राप्त करने को उत्सुक बनी एव अनेक नारियो से परिवृत होकर वे धर्मस्थान पर उपस्थित हुई । आर्य वज्र विविध लब्धियो के स्वामी थे। क्षीराश्रवलब्धि से उनकी वाणी मे मधु-मिश्रित दुग्ध जैसा मिठास आता था। राजपरिवारयुक्त
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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