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________________ १४८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य विशाल परिषद के सामने विरूपाकृति मे प्रस्तुत होकर आर्य वज्र ने पुष्करावर्त मेघ. की नई धाराप्रवाह प्रवचन दिया। लोगो के मन मे विचार उठने लगे जइ नामरुवलच्छी हुति एयस्स तो न तिजए कि । असुरोसुरो व विज्जाहारी व इमिणा समो हुतो ॥ ७१ ॥ ( उप० वृत्ति, पृ० २१५ ) आर्य वज्र में अद्भुत वाक्-कौशल के साथ रूप भी होता तो सुर-असुर, विद्याधर कोई भी व्यक्ति इनकी तुलना मे नही आता । आर्य वज्र ने जनता की भावना को जाना एव तत्काल रूप परिवर्तन किया । वे सहस्रारदलाकृति आसन पर स्थित अत्यन्त सौंदर्य सम्पन्न एव विद्युत्पुञ्ज की भाति प्रकाशवान दिखाई देने लगे । जनता उनके अनूप रूप पर चमत्कृत हुई और लोग कहने लगे--- "नारिया इनके रूप-सौदर्य पर विमूढ न बन जाय सभवत इसीलिए आर्य वज्र ने देशना के प्रारभ मे विरूप रूप का प्रदर्शन किया था ।" राजा ने भी उनके व्यक्तित्व की भूरि-भूरि प्रशसा की । 1 विस्मितानन समग्र सभा को देखकर आर्य वज्र वोले - " तपोधन, लब्धिसम्पन्न अणगार असख्यात सौदर्यसम्पन्न रूपाकृतियो का निर्माण कर सकता है । मैने एक रूप का प्रदर्शन किया है इसमे आश्चर्य जैसा क्या है ।" श्रेष्ठी पुत्री रुक्मिणी आर्य वज्र के गुण- रूपसम्पन्न व्यक्तित्व की यशोगाथा सुनकर पहले से ही उन पर समर्पित हो चुकी थी । प्रवचोनपरात धन श्रेष्ठी आर्य वज्र स्वामी के निकट गया, वदन किया और नम्र शब्दो मे बोला - "आर्य | आपका जैसा विस्मयकारी रूप है मेरी यह पुत्री भी रूप सौदर्य मे कम नही है । शतकोटि सपदा सहित इसे स्वीकार करे ।" आर्य वज्र ने कहा - "श्रेष्ठिन् । तुम स्वय ससार बद्ध हो और दूसरो को भी बाधना चाहते हो ? जानते नही कलुणा नराणमेए, भोगा भुयगव्व भीसणा भोगा । महुलग्ग अग्गधारा, करालकरवाल लिहणसमा ||८०|| किंपागाण व पागा, कडुयविवागा इमे मुहे महुरा । भोगा मसाणभूमिव्व सव्वओ भूरि भयहे ऊ ॥ ८१ ॥ किं बहुणा भणिएण, चउगइ दुक्खाण कारण भोगा ।. ता किरको कल्लाणी, सल्लेसु व तेसु रज्जेज्जा ॥ ८२ ॥ ( उप० वृत्ति, पृ० २१५ ) - भोग भुजग के समान भीषण होते है । मधुलिप्त असिधारा के समान कष्ट कारक होते है । किम्पाक फल के समान मुख मधुर कटु विपाकी होते है । श्मशान भूमि की तरह भयप्रद होते है। अधिक क्या, चातुर्गतिक दुखो के कारण भोग है ।। कल्याण चाहने वाला व्यक्ति इनमे रजित नही होता । T “श्रेष्ठीवर । भौतिक द्रव्यएव विषयानद का प्रलोभन देकर अनन्तद
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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