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________________ १४६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य आचार्य सिहगिरि इस समय वृद्ध हो चुके थे। अव वे उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहते थे। उन्होने वैसा ही किया। सुयोग्य शिष्य आर्य वज्र को वी०नि० ५४८ (वि० ७८) मे आचार्य पद पर नियुक्त कर वे सघ-चिता से मुक्त वने । पूर्व जन्म के मित्र देवो ने इस अवसर पर महान् उत्सव मनाया। आर्य वज्र स्वामी सघ का सकुशल नेतृत्व करते हुए पाच सौ श्रमणो के साथ विहरण करने लगे। उनके व्यक्तित्व मे रूप-सौदर्य एव वाक्-माधुर्य का अनुपम सयोग था। एक बार श्रमण परिवार से परिवृत वज्र स्वामी का पदार्पण पाटलिपुन मे हुआ। पाटलिपुत्र के उद्यान मे वे ठहरे। पाटलिपुत्र के राजा पर आर्य वन स्वामी के व्यक्तित्व का प्रभाव पहले से ही अकित था। उनके आगमन की सूचना पाकर वे हपित हुए एवं वज्र स्वामी के स्वागतार्थ दल-बल सहित चले उज्जयिनी की ओर । श्रमणो के अलग-अलग दल शीघ्र गति से चलते हुए आ रहे थे। सबके वाद विशाल मुनि मडली से परिवृत आर्य वज्र को दूर से आते देखकर राजा का मन प्रफुल्ल हो उठा। भक्तिपूरित श्रावक की भाति मुकुलित पाणि एव नत मस्तक मुद्रा मे राजा ने विधिपूर्वक वज्र स्वामी को वन्दन किया एव 'अभिवदिओ अभिणदिओ' आदि शब्दो से उनका भव्य स्वागत किया था। पाटलिपुत्र के उद्यान मे आर्य वज्रने विशाल मानव-मेदिनी को सवोधित करते हुए मोह-विनाशिनी धर्मकथा प्रारभ की। घनरव-गभीर घोष मे वे बोले खणदिट्ठनट्ठविहवे, खणपरियट्ठ तविविहसुहदुक्खे । खणसजोगवियोगे, नत्थि सुह किपि ससारे ॥५६॥ (उपदेशमाला विशेपवृत्ति, पृ० २१५) ससार प्रतिक्षण परिवर्तनधर्मा है। वैभव स्थायी नही है । सुख-दुख, सयोगवियोग का प्रतिक्षण चक्र चलता रहा है। "पोइणिदलग्गजलबिंदुचचलजीविय"--पद्मिनी दलान पर स्थित जल-विंदु के समान जीवन अस्थिर है। विलसिततडिलेहचचला लच्छी-विद्युत्लेखा की भाति लक्ष्मी चचल है । "ता जिणधम्म मोत्तूण सरण नहु किमपि ससारे"-जिनधर्म को छोडकर कहीं शरण नहीं है। आर्य वज्र की अमृतोपम देशना को राजा के साथ राजकुमारो, श्रेष्ठी पुत्रों, प्रशासको, मत्रियो एव सहस्रो नागरिको ने भी सुना। आर्य वज्र की प्रभावोत्पादक वाणी से श्रोतागण मन्त्रमुग्ध हो गए। प्रवचनोपरात शहर मे वज्र स्वामी के प्रवचन की चर्चा होने लगी। यह चर्चा रुक्मिणी के कानो तक भी पहची । रुक्मिणी पाटीलपुत्र के श्रीसम्पन्न धन श्रेष्ठी की पुत्री थी। वह यानशाला मे विराजित साध्विया के द्वारा स्वाध्याय करते समय प्रतिदिन सुना करती थी
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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