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________________ विलक्षण वाग्मी आचार्य वन स्वामी १३९ लगाकर नदी तरने वाले ५०० तापसो के विस्मयाभिकारक मायावी आवरण को हटाकर त्रान्त जनता के सामने सत्य धर्म का यथार्थ स्प प्रस्तुत करने वाले आर्य समित एव प्रचार मे अनन्य सहयोगी मुनि धनगिरि आर्य सिंहगिरि के दो सुदृढ भुजा स्वरूप थे। इन मुनियों के सहयोग से मार्य सिंहगिरि का धर्म-प्रचार दिन प्रतिदिन उत्कर्ष पर था। इधर गर्भकाल की स्थिति सम्पन्न होने पर सुनदा ने महातेजम्बी पुत्ररत्न को वी०नि०४६६ (वि०२६) मे जन्म दिया । पुन-जन्मोत्सव मनाने की तैयारिया प्रारम्भ हुई। कई मखिया गुनदा को घेरकर खडी थी। गन्मोत्सव की आनन्दमय घडी में धनगिरि का न्मरण करती हुई ये बोली-"बालक के पिता धनगिरि प्रव्रज्या गहण नहीं करते जोर ननमय उपस्थित होते तो आज जन्मोत्सव को ही ल्लास का न्प कुछ दूसग होता। स्वामी के गिना घर की शोमा नही होती । चन्द्र के विना नभ की गोभा नही होती।" नारी जन के आलाप-मनाप को नवजात गिगु ने गुना। उसका ध्यान प्रस्तुत वार्तालाप पर विगेपम्प ने केन्द्रिनहा। भीतर ही गीतर ऊहापोह चला। नदावरण क्षीण होता गया। मानायरोधक कर्म के प्रबल धयोपणम भाव का जागरण होने ही वानका पो माति-मण ज्ञान की प्राप्ति हुई। चिन्तन की धारा आगे वटी । सोचा, महापुषभाग पिता ने नयम रहण कर लिया है। मेरे लिए भी अव वही मागं श्रेष्ठ है।म उत्तम पथ की स्वीकृति मे मा की ममता वाधक बन सकती है। ममन्व के गाट बन्धन को शिथिल कर देने हेतु वानक ने रुदन करना प्रारम्भ कर दिया। वह निरन्तर गेना रहता है । मुना नुगपूवक न सो मकती थी, न व मकती थी, न भोजन कर सकती थी। घर का कोई भी कार्य वह व्यवस्थित म्प से नहीं कर पाती पी। उमने बालक को प्रसन्न करन के नाना प्रयत्न किए। किमी प्रकार की राग-गगिनी जम ऋदन को बन्द न कर सकी और न अन्य प्रकार के साधन भी उमे लुभा मकं । नुनदा बहुत अधिक स्नेह देती, प्यार करती, मधुर लोरिया गा-गाकर उनेसुलान का प्रयत्न करनी पर, बालक का रुदन कम न हुआ। छह महीने पूर्ण हो गए, किनी भी जन्त्र, मन्त्र, औपध-चिकित्मा का उस पर प्रभाव न हुआ। सुनदा वालक सदन मे गिन्न हो गई। एव जन्मुग्च पण्मासा पट् वर्षातसन्निभा |शा प्रभा० च०, पृ० ३ -उमे छह माग भी छह मौ वर्ष जैसे लगने लगे। एक दिन आयं निहगिरि का तुम्बवन नगर मे पदार्पण हुआ। आर्य ममित एव मुनि धनगिरि मी उनके माय ये। प्रवचनोपरात गोचरी के लिए धनगिरि ने गुरु ने आदेश मागा। उमी ममय पक्षीरव सुनाई दिया। निमित्त ज्ञान के विणेपज्ञ आचार्य मिहगिरि ने कहा-"मुने | यह पक्षी का शब्द शुभ कार्य का सकेतक है । आज तुम्हे मिक्षा मे सचित्त-अचित्त जो कुछ भी प्राप्त हो उसे विना विचार किए
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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