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________________ १४० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य ले आना । अतुच्छधी प्रसन्नमना धनगिरि ने गुरु के निर्देश को 'तथेति' कह स्वीकृत "किया और अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ चले। दोनो ने सर्वप्रथम सुनदा के गृह की पूर्व परिचित राह पकडी । आर्य समित एव धनगिरि को आते देख सखी जनो ने सुनदा को उनके आगमन की सूचना दी और कहा-"सुनन्दे । चिन्तामुक्त होने के लिए सुन्दर अवसर उपस्थित हुआ है । बालक के पिता मुनि धनगिरि स्वय तुम्हारे प्रागण को शीघ्र पवित्र करने वाले है। उन्हें अपने पुत्र का दान कर सुखी बनो।" ____वालक के अनवरत रुदन से सुनदा को सखियो की वात पसन्द आयी। वह आगमन से पूर्व ही पुन को गोद में लेकर खड़ी हो गयी। आर्य समित एव मुनि घनगिरि सुनदा के घर पहुंचे। सुनदा ने उनको वन्दन किया और बोली-"मुने। पुत्र के अनवरत रुदन से मै खिन्न हू । माता-पिता दोनो पर सन्तान के सरक्षण का दायित्व होता है। इतने दिन वालक का पालन मैने किया है। अब आप इस दायित्व को सभाले । इसे अपने पास रखे । वालक मेरे पास रहे या आपके पास इसकी कोई चिन्ता नही । यह सुखी रहेगा इसमे मुझे प्रमोद है।" ___दूरदर्शी मुनि धनगिरि ने कहा-"मैं इस पुत्र को दान मे स्वीकार कर सकता हूँ पर भविष्य मे इस घटना से कोई जटिल समस्या पैदा न हो जाए, अत विग्रहविवाद से बचने के लिए साक्षीपूर्वक यह कार्य करो। अभी से सोच लेना, भविष्य मे तुम किसी प्रकार की माग पुत्र के लिए नही रख सकोगी।" निर्वेद प्राप्त सुनदा वोली-"इस समय आर्य समित और ये मेरी सखिया भी साक्षी है। मै अपने पुत्र के लिए भविष्य में किसी प्रकार का प्रश्न खडा नहीं करूगी।"५ सम्यक् प्रकार से कार्य की भूमिका को सुदृढ बनाकर मुनि धनगिरि ने वालक को पात्र मे ग्रहण कर लिया। मुनि धनगिरि के पास आते ही वालक चुप हो गया मानो उसे अपना लक्ष्य मिल गया हो। मुनि धनगिरि वालकसहित पान को उठाकर चले। गुरु के समीप पहुचे। भारी पान से मुनि धनगिरि का हाथ लचक रहा था, कधा झुक गया था। चलने मे भी कठिनाई का अनुभव हो रहा था। आर्य सिंहगिरि मुनि धनगिरि को अधिक भार सहित आते देख उनका सहयोग करने के लिए उठे और धनगिरि के हाथ से पात्र को अपने हाथ मे लिया। आर्य सिंहगिरि को भी पान अपने हाथ मे छूटतासा लग रहा था। उनके मुह मे शब्द निकला-"यह वजोपम क्या उठा लाए हो?" सहज भाव से उच्चारित वन शब्द वालक का स्थायी नाम बन गया। आज भी उनकी प्रसिद्धि वज्र स्वामी के रूप मे है। ___होनहार विरवान के होत चिकने पात' यह लोकोक्ति वालक वब के जीवन मै मत्य प्रतीत हो रही थी। उसका सौम्य वदन, तेजस्वी भाल एव चमकते नेन्न
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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