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________________ १३८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य । औरअपनी रूपवती कन्या सुनदा से पाणि ग्रहण करने के लिए उन्होने आग्रह किया। विरक्त धनगिरि के मानस मे भोग-कामना की कोई रेखा अकित नही थी। उन्होने निस्पृह भाव से अपने विचारो को प्रस्तुत करते हुए दामाद बनाने को उत्सुक श्रेष्ठी धनपाल से कहा सुहृदा सुहृदा किं स्याद् बन्धन कर्तुमौचिती। -३८ श्लोक --अपने ही मित्रजनो को भव भ्रामक वधन में डालना स्वजनो के लिए कहा तक समीचीन है ? धनगिरि की प्रश्नात्मक शैली मे उपदेणमयी भाषा सुनकर श्रेष्ठी धनपाल गभीर हुए एवं अध्यात्मभाव भूमि पर भावो को अभिव्यक्ति देते हुए बोले, "भवार्णव पारगामी ऋपभ प्रभु ने भी ससार के कर्तव्य को निभाने हेतु इस वधन को स्वीकार किया था। अत मेरी वात किमी प्रकार से अनुचित नही है।" नारी को बधन मानते हुए भी धनगिरि श्रेष्ठी धनपाल के आग्रह को टाल न सके। उन्होने अन्यमनस्क भाव से उनके निवेदन की मौन स्वीकृति प्रदान की। ___ शुभ मुहर्त एव शुभ घडी मे सुनदा एव धनगिरि का विवाह उल्लासमय वातावरण मे सम्पन्न हुआ। सासारिक भोगो को भोगते हुए उनका जीवन सानद वीतता गया। एक दिन सुनदा गर्भवती हुई। स्वप्न के आधार पर पुत्ररत्न का आगमन जान पति-पत्नी दोनो को प्रसन्नता हुई। धनगिरि ने अपने को धन्य माना । उन्हें लगा अपनी मनोकामना पूर्ण करने का अब उचित अवसर उपस्थित हो गया है। अपनी भावना को पत्नी के सामने प्रस्तुत करते हुए उन्होने कहा, "आर्य । नारी का बाल्यकाल में पिता के द्वारा, यौवन में पति के द्वारा एव वार्धक्य अवस्था मे पुत्र के द्वारा सरक्षण प्राप्त होता है। तुम्हारे स्वप्न के आधार पर तुम नि सदेह पुत्र के सौभाग्य को प्राप्त करोगी। तुम्हारे मार्ग मे अब किसी प्रकार की चिन्ता अवशिष्ट नही रही है । मैं भी अपने कर्त्तव्य-ऋण को उतार चुका हू । अव तुम मुझे प्रसन्नतापूर्वक सयम-मार्ग पर वढने के लिए आज्ञा प्रदान करो।" नारी का मानस सदा भावुक होता है । मधुर वातो से उसे किसी वात के लिए उकसाया जा सकता है, मनाया जा सकता हे एव भरमाया जा सकता है। सौम्य हृदया सुनदा एक ही बार मे पति के प्रस्ताव पर सहमत हुई एव उसने व्रत ग्रहण करने के लिए सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी। उत्तम पुरुष श्रेय कार्य मे क्षणमात्र मी किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। पत्नी के द्वारा आदेश-स्वीकृति मिलते ही श्रेष्ठीपुत्र धनगिरि जीर्ण धागे की तरह प्रेमवन्धन को तोडकर महा त्याग के कठिन पथ पर चल पडे । उनके दीक्षा-प्रदाता गुरु आर्य सिंहगिरि थे। आर्य समित एव धनगिरि परस्पर साला-बहनोई थे। दोनो का सवध सुनदा के निमित्त से जुड़ा हुआ था। जैन शासन मे दोनो प्रभावी मुनि थे। पैरो पर लेप
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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