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________________ २३. विलक्षण वाग्मी आचार्य वज्र स्वामी नौभाग्यनिधि पहप्ट वान्मी आना पद्य यामी का जीवन विलक्षण निरोपनागे ने मस्ति या। गव मान में भी उना मानस विरक्ति के सूले मे जूनता रहा। दुग्धपान से माय एफादमागी का अमृत पान कर वे अध्यात्म पोप को प्राप्त हुए । गतस्य जीवन में भी दीक्षागुर मारा उनका नामपरण हुआ। तीन वर्ष की ज्वम्या में भी मातृवात्सल्य कोठारामार मा-मगति में प्यार किया। आठ वर्षे पी जवस्था में दे त्याग के पथ पर चढ़ चले। स्पधी एव वाग्माधुर्य पर मुग्ध श्रेष्ठी पुन्नी रविमणी को गयम मार्ग की पविा यनाने का श्रेय भी उन्हें है। ये आगोंगे परम्पग अन्तिम दश प्रपंधर ये एव गगन-गामिनी विद्या के उद्धारक थे। अवन्नि देश अन्तर्गन स्वर्गीय नगर तुम्बवन में जायं वन का जन्म हुआ। उनना परिवार सब प्रकार से सम्पन्न था, सुखी था। उनके पितामह प्रेोठी धन उस नगर के समृद्ध व्यक्नि धे। अपने सौम्य, जीदायं, गाम्भीर्य आदि गुणो गे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त थे। मार्ग यच म्यामी के पिता का नाम धनगिरि था। आर्य व जव गर्भ मे थे तभी उनके पिता श्री धनगिरि ने आर्य सिंहगिरि के पाम दीक्षा ग्रहण कर ली थी। उन दीक्षा ग्रहण करने की घटना विचित्र है। धनगिरि विवेकनम्पन्न वानक ये। मामारिक विपयो के प्रति कमल की भाति निनप थे। उमी नगर में महालक्ष्मी का स्वामी धनपाल रहता था। वह प्रसिद्ध व्यापारी या । धनपान के पुत्र का नाम समित या एव पुत्री का नाम सुनदा था। धनगिरि की भाति समित मी मोगो के प्रति जनामस्त था। श्रुत मलयाचल आर्य मिहगिरि के आगमन पर परम वैराग्य को प्राप्त समित ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। गुणवनी मुनदा तव तक अवस्था प्राप्त हो चुकी थी। धनपाल को पुत्री के विवाह की चिन्ता का भार अधिक समय तक वहन नही करना पड़ा। सुनदा धनगिरि के स्प और गुणो पर मुग्ध थी। उसने एक दिन अपने विचार पिता के सम्मुख प्रस्तुत किरा । सम्भवत उस युग मे भी लडकिया वर-चुनाव में स्वतन थी। धनपाल ने भी पुत्री के विचारों को ठीक समझा । धनगिरि से इस सवध की बातचीत की
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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