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________________ ६२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अग्रोहा नगर में की थी ऐसा लिखा है। पर इसका कोई प्राचीन उल्लेख मेरे अवलोकन में नहीं पाया। किन्तु १९वीं २०वी शताब्दी के लेखों में लोहाचार्य के अन्वय का उल्लेख मिलता है। ऐसी स्थिति में बुलाकीदास का लिखना विश्वसनीय नही जान पड़ता। काठ की प्रतिमा के पूजन से काष्ठासघ नाम पड़ा, यह कल्पना तो निराधार है ही, काठ की प्रतिमा के पूजन का निषेध भी मेरे देखने मे नही पाया। काष्ठा नाम का स्थान दिल्ली के उत्तर में जमूना नदी के किनारे बसा था। जिस पर नागवंशियों की टांक शाखा का राज्य था। १८वी शताब्दी में 'मदन पारिजात' नाम का निबन्ध यही लिखा गया था। काष्ठासंघ की पावली में भी लोहाचार्य का नाम है । ऐसी प्रसिद्धि है कि लोहाचार्य ने ही अग्रवालों को दि जैन धर्म में दीक्षित किया था। अग्रवालों का उल्लेख करने वाले लेखों में काष्ठासंघ और लोहाचार्यान्वय का निर्देश है। इस सघ के आचार्य अमितगति द्वितीय ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है, उसमें देवसेन, अमितगति प्रथम, नेमिपेण, माधवसेन और अमितगति द्वितीय है। अमितगति द्वितीय ने अपनी रचनाएं सं०१०५० मे १०७३ तक बनाई हैं। इसी मंघ के अन्तर्गत अमरकीति ने जो गृरु परम्परा दी है वह इन्ही अमितगति से शुरू की है, अमितगति, शान्तिषण, अमरमेन, श्रीषण, चन्द्रकीति, अमरकोति । अमरकीति को रचनाएं म० १२४४ मे १२४७ तक की उपलब्ध है। इन्हीं अमरकीतिक शिप्य इन्द्रनन्दि ने श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के योग शास्त्र की टीका शक म० ११८० वि० स० १३१५ में बनाकर समाप्त की थी। इममे स्पष्ट है कि काप्टामघ के माथुग्मंघ की यह परम्पग १०५० मे १३१५ तक चलती रही है। उसके बाद इसी परम्परा में उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र हए। इन्होने अपनी रचनाओ द्वारा अपभ्रश साहित्य को वद्धिगत किया है। उदयचन्द्र ने गहम्थ अवस्था में सुगन्ध दशमी कथा की रचना लगभग ११५० ई. में की थी। उसके बाद वे मुनि हो गए थे। काठामघ में नन्दितट, माथर, वागड़ और लाल बागड ये चार गच्छ प्रसिद्ध थे। जैसा कि भट्रारक सुरेन्द्रकीति की पट्टावली में स्पष्ट है । ये चारों नाम स्थानों और प्रदेशों के नामों पर रक्ये गए है । कुमारसेन नन्दि और राममेन माथर मघ के, जिमका विकास मथुरा में हुआ है। वागड़ में वागड़गच्छ, और लाट गुजरात और बागड मे लाल बागड़गच्छ । लाट और बागड़ बहुत समय तक एक ही राजवश के प्राधीन रहे है। माथुर सघ को जैनाभास, जीव रक्षा के लिये किसी तरह की पीछी न रखने के कारण कहा गया है। आचार्य अमितगति द्वितीय के ग्रन्थो से ऐसा कोई भी भेद नजर नहीं आता जिससे उन्हें जैनाभास कहा जाय। दर्शनसार की रचना वि०म० ६६० में हुई है। नन्दितट गच्छ-इसमें अनेक विद्वान आचार्य और भट्टारक हए है। राममेन नरमिह जाति के सस्थापक कहे गये है। इनके शिप्य नेमिसेन ने भट्टपूरा जाति की स्थापना की है। भीमसेन के शिष्य सोमकीर्ति ने सवत १५३२ में वीरमेन गुरु के साथ शीतलनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा का। सोमकीति ने स०१५२६-१५३१ और १५३६ में प्रद्यम्नचरित, सप्तव्यसन कथा और यशोधरचरित की रचना की। सं० १५४० में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की। और सुलतान फिरोजशाह के राज्यकाल में पावागढ़ में पद्मावती की सहायता से आकाश गमन का चमत्कार दिख लाया। इनके बाद अन्य अनेक भट्टारक हए, जिन्होने जैनधर्म की सेवा की। माथुर गच्छ-इस गच्छ में अनेक ग्रन्थकर्ता विद्वान हुए है। इस गच्छ के अनेक विद्वानों का उल्लेख ऊपर दिया जा चका है। नमिषण के शिष्य अमितगति प्रथम ने योगसार की रचना की। माधवसेन के शिष्य अमितगति १. देखो, पभोमा का स० १८८१ मन् १८२४ का लेग्व, जैन लेख स० भा० ३ पृ० ५७६-५८० । तथा नया मन्दिर धर्मपूग के जैन मूति लेख, अनेकान्त वर्ष १६. किरण ३ । लेख नं० १०, ११, १२ मे लोहाचार्याम्नाय का उल्लेख है। २. काष्ठामधे भुविख्यातो जानन्ति नृसुरामुगः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ।। श्री नन्दिनट सज्ञा च माथुरो बागडाभिधः । लाल-बागड़-इत्येके विख्याताः क्षितिमण्डले ॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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