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________________ जन-मघ-परिचय द्वितीय ने सुभाषित रत्नसदोह धर्मपरीक्षा, पचसग्रह, तत्व भावना, उपासकाचार, द्वात्रिशतिका और आराधना ग्रन्थ की रचना की । इस सघ के दूसरे आचार्य छत्रसेन थे, जिन्होंने स० ११६६ में परमार राजा विजयराज के राज्यकाल में मन्दिर बनवाया। गुणभद्र न म० १२२६ में विजाल्या के पाश्वनाथ मन्दिर की विस्तृत प्रशस्ति लिग्यो । इस परम्परा के अन्य अनेक भट्टारको ने ग्वालियर किले में मूर्ति निर्माण और यशःकोति, मलय कीति, गुणभद्र और रइधू आदि ने अनेक ग्रन्थो की रचना की। इनमे यश कीति के गुरु गुणकीति बहुत प्रभावशाली थे जिन्होने राजा डूगर्गसह आदि को जैनधर्म का श्रद्धाशील बनाया। इन तामर वश के गामको क समय जहा जेन धर्म का विस्तार ओर प्रभाव रहा, वहाँ जैनधर्म का प्रभाव भी जनता पर रहा। बागडगच्छ-लाडबागड बागड का कोई स्वतन्त्र उल्लेख प्राप्त नही हआ। लाड गूजगत और बागड़ दोनो मिलकर लाइवागड गच्छ हना। इसका सम्कृत नामलाटवर्गट है। जयमेन (१०५५) ने इसका सम्बन्ध भगवान महावीर के गणधर मेतार्य के साथ जोडा है। इससे पह मघ १०वी शताब्दी में भी पूर्व का जान पड़ता है । इसका प्रभाव गुजरात ओर बागड प्रदेश में रहा है। किन्तु बाद में मालवा और धाग और उसके आम-पाम के प्रदेशो मे अकित रहा है । लाट वागड और पून्नाट मघा की एकता का आभास ले० न० ६३१ मे प्रतीत होता है। और लाड बागड गच्छ के कवि पामो के उल्लेख मे उसकी पुष्टि होती है। पुन्नाट मघ के आचार्य जिनमेन ने शक सं० ७०५ में वर्धमान पुर के पार्श्वनाथ तथा दोस्तटिका के शान्तिनाथ मन्दिर में रह कर हरिवश पुराण की रचना की थी। सभव है दक्षिण के माननीय नन्दि सघ तथा पुन्नागवृक्ष मूलगण को अकंकोति ने अपना संघ बतलाया है । इससे लगता है कि पुन्नाग वृक्षमूलगण पुन्नाट का ही रूपान्तर हो । पुन्नाट मध के प्राचार्य हरिपण ने सम्वत् ६८६ मे वर्धमान पुर में बृहत्कथा कोष की रचना की है। श्रीचन्द्र ने लाडवागड मंघ का उल्लख किया है। महामन ने भी अपने का लाडबागड़ सघ का विद्वान सूचित किया है । प्रद्युम्न चरित में इन्होन जयमेन, गुणाकर सेन, महामन के नामोल्लेख से अपनी गुरु परम्परा दी है। स० ११४५ के दूबकुण्ड के लेख में विजयकीति ने देवमेन कुलभूपण दुर्लभमेन, अम्बरमेन आदि वादियों के विजेता शान्तिषण और विजयकीर्ति के नाम दिये है । इसमे यह सघ भा प्रभावक रहा है। शिलालेख, मति लेख, ताम्र पत्र और प्रशस्तियो पर मे ओर भी मघ, गण-गच्छादि का पता चल सकता है। इस परिचय द्वारा दि० जैनाचार्यां के गण-गच्छादि पर सक्षिप्त प्रकाश पड़ता है। आगे जिन आचार्यों, विद्वानों और भट्टारको आदि का परिचय दिया जायगा, वे सब प्राचार्य इन्ही मघों ओर गण-गच्छों के थे।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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