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________________ जैन-संघ-परिचय थी। वे मन्दिर बनवाते थे, उनका जीर्णोद्धार कराते थे, मुनियों के प्राहार की व्यवस्था करते थे। इन्हीं वादिराज के समसामयिक मल्लिपेण थे । इनके मंत्र-तत्र विषयक ग्रन्थों में मारण-उच्चाटन, वशीकरण, मोहन, स्तम्भन आदि के अनेक प्रयोग निहित हैं। ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता इन्द्रनन्दियोगीन्द्र भी द्राविड़ संघ के थे। इस ग्रन्थ की उत्थानिका में लिखा है कि दक्षिण के मलय देश के हेमग्राम में द्राविडसघ के अधिपति हेलाचार्य थे । उनकी शिप्या को ब्रह्मराक्षस लग गया था। उसकी पीड़ा दूर करने के लिये हलाचार्य ने ज्वाला मालिनी की मेवा की थी। देवी ने उपस्थित होकर पूछा-क्या चाहते हो ! मुनि ने कहा- मुझे कुछ नही चाहिये, मेरी गिप्या को ग्रह मुक्त कर दो। देवी के मंत्र से शिप्या स्वस्थ हो गई । फिर देवा के आदेश ने हेलाचार्य ने ज्वालिनोमन का रचना को। इस संघ के अधिकांश लेख होयमन नरेशों के हैं। इस मंघ के प्राचार्यों ने पद्मावतो देवो की पूजा, प्रतिष्ठा में बड़ा योगदान किया था। इस संघ के प्रायः सभी साधु बदियों में रहते थे । दान में प्राप्त जागीर आदि का प्रबन्ध करते थे। चल ग्राम के वमिरे देवमन्दिर में शक मं०१०४७ का एक शिलालेख है जिममें द्राविड संघीय इन्हीं वादिराज के वंशज श्रीपालयोगीश्वर को होय्यसल वश के विण वर्द्धन पोय्यमल देव ने वतियों या जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धारार्थ और ऋपियों के आहार-दान के लिये शल्य नामक ग्राम दान में दिया' । वि० सं०११४५ के दुवकण्ड के शिलालेख में कछवाहा वश के राजा विक्रममिह ने पूजन मम्कार, कालान्तर में टूटे फटे की मरम्मत के लिये कछ जमीन, वापिका सहित एक बगीचा ओर मुनि जनो के शरीराभ्यंजन (तैल मर्दन) के लिये दो करघटिकाएं दी ये सव बाते भी चैत्यवास के प्राचार का उद्भावन करती हैं। कर्चकसंघ-कर्नाटक प्रान्त में ईसा की पाचवों शताब्दी या उसके पहले जैनियों का एक सम्प्रदाय कूर्चक नाम से ख्यात था। जिसका अस्तित्व तथा कूर्चक नाम कदम्बवंशी राजाओं क लेखों (65-66) से ज्ञात होता है। यह साधनो का ऐसा सम्प्रदाय था, जो दाड़ी मूछ रखता था। उसके माथ यापनीय और श्वेतपट संघ का नामोल्लेख है। प्राचीन काल में जटाधारी और नग्न आदि अनेक प्रकार के अर्जन साधु थे। इसी तरह जैनियों में भी ऐसे साधनों का सम्प्रदाय था जो दाड़ा मूछ रग्वने के कारण कुचक कहलाता था। गौड़ संघ-गोड़ सघ का उल्लेख एक ही लेख में मिलता है। इस सम्बन्ध में अन्य लेख देखने में नहीं प्राया। गौड़ सघ के प्राचार्य सोमदेव के लिये चालुक्य राजा बद्दिग द्वारा शुभधाम जिनालय के बनवाने का उल्लेख है। (रि० इ० ए० १९४६-७ क्र-१५८) काष्ठासंघ-माथुरगच्छ देवमेन ने दर्शनसार में काष्ठासंघ की उत्पत्ति दक्षिण प्रान्त में, प्राचार्य जिनमेन के सतीर्थ विनयमेन के शिप्य कुमारमेन द्वारा जो नन्दि तट में रहते थे वि० सं० ७५३ में हुई बतलाई है । और कहा है कि उन्होंने कर्कश केश अर्थात गौ को पंछ की पीछी ग्रहण करके सारे वागड़देश में उन्मार्ग चलाया। किन्तु काप्ठासंघ के संस्थापक कुमारसेन का समय म०७५३ बतलाया है । वह संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि विनयमेन के लघु गुरु बन्ध जिनमेन ने 'जयधवला' टीका शक स०७५६ सन् ८३७ में बनाकर समाप्त की है । अत: उसे विक्रम मवत् न मानकर शक संवत मानने से संगति ठीक बैठ जाती है। और उसके दो सौ वर्ष बाद अर्थात् वि० संवत ६५३ के लगभग मथरा में माथरों के गुरु गमसेन ने नि:पिच्छिक रहने का उपदेश दिया और कहा कि न मयूरपिच्छी रखने की आवश्यकता है और न गोपिच्छी की। सभी संघों, गणों और गच्छों के नाम प्रायः देशों या नगरों के नाम पर पड़े हैं। जैसे मथुरा से माथुरसंघ, काष्ठा नाम के स्थान से काष्ठासंघ। बुलाकीदास ने अपने वचन कोश में उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहाचार्य द्वारा काष्ठासंघ की स्थापना १. जन शिलालेख सग्रह भाग ४६३ न का लेख २. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह प्रथम भाग तथा धवला पु. १ प्रस्तावना प० ३५-३६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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