SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ प्रार्थना पर उक्त सघ के लिये मलिमपुण्डि नाम का एक गांव दान में दिया था। श्री मन्दिरदेव यापनीय संघ, कोटि मडुव या मडुवगण और नन्दिगच्छ के जिननन्दि के प्रशिष्य और दिवाकरनन्दि के शिष्य थे। उसी राजा के दूसरे लेख नं० १४४ में अड़कलिगच्छ बलहारिगण के प्राचार्यो की पक्ति सकलचन्द्र, अय्यपोटि, अर्हनन्दि । नन्दि मुनि को अम्मराज द्वितीय ने सर्वलोकाश्रय जिनालय की भोजनशाला की मरम्मत कराने के लिये अत्तलिपाण्डु प्रान्त के कलुचुम्बरू नाम का गाव दान में दिया था । यद्यपि इस लेख में स्पष्ट रूप से यापनीय संघ का उल्लेख नहीं है । किन्तु अडुकलि गच्छ और बलिहारिगण का उल्लेख अन्यत्र न मिलने से वे यापनीय सम्प्रदाय के थे । यापनीय मघ के अन्तर्गत नन्दिसघ एक महत्वपूर्ण शाखा थी, जो मूलमघ के नन्दिमध से भिन्न थी । यह नन्दि संघ कई गावों में विभाजित था। जान पड़ता है सघ व्यवस्था की दृष्टि से उसे कई भेदो में वांट दिया गया था। उनमे कनकापल मम्भूत वृक्षमूलगण (१०६) श्री मूलमूलगा ( १२१ ) और पुन्नागवृक्ष मूलगण ( १२४ ) इनमें पुन्नागवृक्ष मूलगण प्रधान था और वह उसकी प्रसिद्ध शाखा रूप में ख्यात था। गणों के नाम कतिपय वृक्षां के नाम से सम्बन्धित है । सन् १९०८ के २५०व लेख से ज्ञात होता है कि उक्त पुन्नागवृक्ष मूलगण का मूलसंघ के अन्तर्गत पाते है । ऐसा जान पड़ता है कि वह बाद में मूलमघ म अन्तर्भुक्त हो गया है। शिलालेखा म निर्दिष्ट बहुत साध् इसी गण से सम्बद्ध थे। इसके अतिरिक्त यापनियों के भी अनेक गण थे। दो लेखा (७० श्रोर १३१ ) मे कुमुदिगण का उल्लेख मिलता है। इनमें से पहला लेख नवी गतो का हे और दूसरा १०४५ ई० का है । दोनों में जिनालय के निर्माण का उल्लेख है । इस सत्र विवरण से यापनीयमघ की ख्याति ओर महत्ता का स्पष्ट बोध होता है । यह सघ हवी १० वी शताब्दी तक सत्रिय रहा जान पड़ता है। पर बाद में उसका प्रभाव क्षीण होने लगा । इस संघ के मुनियों में कीर्ति नामान्त र नन्दि नामान्त नाम अधिक पाये जाने है, विजयकीर्ति, अर्ककीर्ति, कुमारकीति, पाल्यकीति प्रादि, चन्द्रनन्दि, कुमारनन्दि, कीर्तिनन्दि, सिद्धनन्दि, अर्हनन्द आदि । किन्तु यह मंध जिस उद्देश्य को लेकर बना वह अपने उस मिशन में सफल नहीं हो सका। और अन्त में अपनी हीन स्थिति में दिगम्बर संघ के अन्दर अन्तर्भवित हो गया जान पड़ता है । बेलगाव 'दोड्डवस्ति' नाम के जैन मन्दिर की श्री नेमिनाथ की मूर्ति के नीचे एक खडित लेख है, जिसमे ज्ञात होता है कि उक्त मंदिर यापनीय संघ के किसी पारिसय्या नामक व्यक्ति ने शक ९३५ सन् १०१३ (वि सं. १०७०) में बनवाया था और उक्त मंदिर की यापनीयो द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा इस समय दिगम्बरियो द्वारा पूजी जाती है'। यापनियो का साहित्य भी दिगम्बर सम्प्रदाय मे अन्तर्भुक्त हो गया । द्राविड़ संघ - द्राविड देश में रहने वाले जैन समुदाय का नाम द्राविड सघ है । लेखो में इसे द्रविड, द्रविड, द्रविण द्रमिल, द्रविल, द्राविड आदि नामो से उल्लेखित किया गया है। द्रविड़ देश वर्तमान में आन्ध्र श्री मद्रास प्रान्त का कुछ हिस्सा है। इसे तमिल देश में भी होना कहा जाता है । इस देश में जैन धर्म के पहुचने का काल बहुत प्राचीन है । इस देश में साधुओ का जरूर कोई प्राचीन संघ रहा होगा । आचार्य देवमेन ने दर्शनमार में द्राविड संघ की स्थापना पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्द के द्वारा दक्षिण मथुरा मे वि० स० ५२६ में हुई लिखा है । वज्ज्रनन्दि के सम्बन्ध में लिखा है कि उस दुष्ट ने कछार खेत वसदि और वाणिज्य मे जीविका करते हुए शीतल जल से स्नान कर प्रचुर पाप का सचय किया । किन्तु शिलालेखो में इस सघ के अनेक प्रतिष्ठित आचार्यों के नाम मिलते है । अतः देवमेन के उक्त कथन में सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है । मन्दिर बनवाने और खेती बाड़ी करने के कारण इस संघ को दर्शन सार में जैनाभास कहा गया है। वादिराज भी द्राविड सघ के थे। उनकी गुरु परम्परा मठाधीशों की परम्परा १. देखो, जैनदर्शन वर्ष ४ श्रक ७ २. मिरिपुज्जपादमीसो दाविडमघम्म कारगो दुट्टो । नामेण वज्जणदी पाहुडवेदी महासत्थो ।। २५ पञ्चस छब्बीसे विक्कमराया नरपतम्म । दक्खिर महराजादो दाविडसधो महामोहो || २६ कच्छ खेत्त वसहि वाणिज्ज कारिऊरण जीवन्तो । हंता सीयल गीरे पावं पउर च संवेदि || २७ ( दर्शनसार)
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy