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________________ भगवान महावीर के ग्यारह गणधर मुनि पद्मनन्दि ने भी जम्बूदीपपण्णत्ती में सुधर्म का नाम स्पष्ट रूप से लोहाचार्य बतलाया है, जैसा कि उसकी निम्न गाथा से स्पष्ट है: तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर सुधम्मणा खलु जम्बूणामस्स णिद्दिट्ठो॥ (जबू०प०१-१०) इससे सुधर्म का नाम लोहाचार्य निश्चित है। जब ईम्बी पूर्व ५१५ में इन्द्रभूति गौतम का निर्वाण हुआ, उसी दिन सूधर्म स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। मुधर्म स्वामी ने ३० वर्ष गणधर अवस्था में रहकर अपने मात्मा का विकास किया और संघ मचालन किया, तथा जैन धर्म के प्रचार एव प्रसार में सहयोग प्रदान किया। मधर्म स्वामी ने ३० वर्ष के मुनि जीवन में जो कार्य किया है, सहस्रो को जैनधर्म में दीक्षित किया, उसका यद्यपि कोई विवरण उपलब्ध नही है। किन्तु उनके मुनि जीवन को एक घटना का उल्लेख निम्न प्रकार उपलब्ध होता है। एक समय मुधर्माचार्य समघ विहार करते हुए उड़ देश के धर्मपूर नगर में पाये और उपवन में ठहरे। वहाँ के राजा का नाम 'यम' था। उसकी अनेक रानियाँ थी। उनमें धनवती नाम की रानी मे गर्दभ नाम का पूत्र और कोणिका नाम की पुत्री उत्पन्न हई थी। अन्य गनियों में पाच मो पूत्र उत्पन्न हए थे। ये पाँच मो पूत्र परस्पर में प्रेमी, धर्मात्मा और ससार से उदासीन रहते थे। राजमत्री का नाम दीर्घ था, जो बहुत बुद्धिमान और राजनीतिज्ञ था। सुधर्माचार्य का प्रागमन जानकर, तथा नगर-निवामियों को पूजा की सामग्री लेकर उनकी पूजा-वन्दना को जाते देखकर राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में मुनियो की निन्दा करते हुए उनके पास गया। मुनि-निन्दा और ज्ञान के अभिमान मे उसके ऐसे तीव्र कर्म का उदय पाया कि उसकी सब बुद्धि नष्ट हो गई। उसे अपनी यह दशा देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुमा । उसने उनकी तीन प्रदक्षिणा दी और नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश मना। उससे उसे बहत कुछ शान्ति मिली। उसने अपने पाच मौ पुत्री के साथ गर्दभ को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना करने लगा। उनके पुत्र भी प्रात्म-साधना में सलग्न होकर कठोर तप का आचरण करने लगे। ___ इस तरह सुधर्माचार्य ने सहस्रों को दीक्षा दी, उन्हे सन्मार्ग में लगाया, और महावीर-शासन का प्रचार किया। अन्त में सुधर्मस्वामी ने अपना सब संघभार जम्बस्वामी को सौंप दिया और घातिकर्मों का विनाश कर केवली (पर्णज्ञानी) बने । उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त विविध देशों में विहार कर जनता का कल्याण किया-महावीर के सर्वोदय तीर्थ का प्रचार किया। अन्त में ईस्वी पूर्व ५०३ में सौ वर्ष की अवस्था में विपूलाचल से निर्वाण प्राप्त किया। श्वेताम्बर परम्परानुसार पांचवे गणधर सुधर्म का परिचय निम्न प्रकार है : पचम गणधर सधर्मा 'कोल्लाग' सन्निवेश के अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम भहिला और पिता का नाम धम्मिल था। इन्होंने भी जन्मान्तर विषयक अपने सन्देह को मिटाकर भगवान महावीर के चरणों में पांच सौ छात्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। ये भगवान महावीर के उत्तराधिकारी हए, और महावीर निर्वाण के बीस वर्ष बाद तक संघ की सेवा करते रहे । अन्य सभी गणधरों ने इन्हे दीर्घ जीवी समझ कर अपने-अपने गण सम्हलवाए। इनकी प्रायु सौ वर्ष के लगभग थी। ५० वर्ष की वय में दीक्षा ली और ४२ वर्ष छद्मस्थ पर्याय में १- मन्निव तिदिने लब्धा सुधर्मः श्रुतपारगः ।। लोकालोकावलोककालोकमन्त्यविलोचनम् ॥ .-उत्तर पु०,७६३५१७-५१८
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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