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________________ २६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ महावीर के जीवन काल में ही मुक्ति को प्राप्त हुआ। श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य व्यक्त कोल्लाग सन्निवेश के भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम वारुणी और पिता का नाम धनमित्र था। इनके मन में यह सन्देह था कि 'ब्रह्म के अतिरिक्त सारा संसार मिथ्या है। भगवान महावीर के समवसरण में उनकी दिव्य वाणी से समाधान पाकर अपने पाँच सो शिष्यों के साथ पचास वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में आत्म-साधना कर केवलज्ञान प्राप्त किया। १८ वर्ष तक केवली रहकर महावीर के जीवन काल में अस्सी वर्ष की अवस्था में मुक्ति पथ के पथिक बनेकर्म बन्धन से मुक्त हुए। सुधर्मस्वामी-(पंचम गणधर) सूधर्म स्वामी मगधदेशस्थ संवाहन नगर के राजा सूप्रतिष्ठ और रानी रुक्मणि का पूत्र था। वह कुशाग्र बुद्धि, विद्याओं के परिज्ञान में ज्येप्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और कलाओं का धारक था और सज्जनों के मन को आनन्द देने वाला एवं शत्रु पक्ष के राजकुमारों को भय उत्पन्न करने वाला था। एक दिन राजा सूप्रतिष्ठ सपरिवार भव-समुद्र-मतारक भगवान महावीर के समवसरण में गया, और उनकी दिव्य ध्वनि सुनकर देहभोगों से विरक्त हो दिगम्बर मूनि हो गया और भगवान का चतुर्थ गणधर हआ। कुमार ने जब देखा कि पिता ने राज्य विभूति का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली, तब सुधर्म ने भी अपने जनक की राज्य मम्पदा का परित्याग कर शाश्वत सुख की साधक दीक्षा अंगीकार की और वह महावीर का पंचम गणधर बना और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में तत्पर हुआ। एक दिन वह मुनि संघ के साथ विहार करता हुआ राजगृह के एक उद्यान में पहुंचा। वहाँ जम्बूस्वामी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया और फिर उन्ही की ओर देखने लगा। उसके मन में उनके प्रति अनुराग हुआ। जम्बू कुमार ने सुधर्म स्वामी मे उसका कारण पूछा, तब उन्होंने बतलाया कि 'मैं वही भवदत्त का जीव हूँ, जो राजा वज्रदन्त का सागरचन्द्र नाम का पूत्र था, और मुनि होकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ था और तुम भवदेव के जीव हो, जो महापद्म राजा के शिवकमार नाम के पुत्र थे ओर पिता के मोह से दीक्षा न लेकर घर में ही पाणिपात्र में प्राशक आहार लिया करते थे। वहाँ से जलकान्त विमान में विद्युन्माली नामक देव हुआ, जो चार देवियों से युक्त था। अब वहाँ से अर्हदास वणिक का पूत्र हा है। यही परस्पर के स्नेह का कारण है। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने एक मुहूर्त में द्वादशांग का अवधारण कर बारह अंग रूप ग्रन्थों की रचना की और अपने गुणों के समान सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। मुधर्म स्वामी का अपर नाम लोहाचार्य भी था । धवला टीका में सुधर्म के स्थान पर लोहाचार्य का उल्लेख किया गया है। सज्जग मग नयगाणंदयउ, लाइय पडिबक्व कुमार हरु । एकहि दिणे मुप्पइट्ठ निवइ, मकलनु मनदगु सुद्धमइ । गउ वदण भत्तिए भवतरण, मिग्विीरजिणंद ममोमरण । रिणमुरणे वि पग्मेट्ठिहि दिव्व झुरिग, पवज्ज लेविहुउ परम मुरिण । गणहर चउत्थु तव-वियतणु, मिद्धवहु निमेमिय विमलमणु ॥ -जंबू सामिचरिउ पृ० १५०-१५१ १. प्राचार्य रविपेग ने पद्मचरित के ४१ वे पद्य में 'सुधर्म धारिणी भवम्' द्वारा उन्हें धारिणी का पुत्र प्रकट किया है। २. तेण गोदमेण दुवि हमवि सुदणाणं लोहज्जस्स संचारिदं । -धवला० पु०१पृ० ६५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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