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________________ भगवान महावीर के ग्यारह गणधर २५ और अर्थपदों के कर्ता तीर्थकर हैं। तीर्थकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रत पदार्थ में परिणत हए। अतएव द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं । इन्द्रभूति ने दोनों प्रकार का श्र तज्ञान लोहाचार्य (मुधर्म स्वामी ) को दिया। __ जिस दिन (कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रातःकाल) भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उसी दिन गौतम इन्द्रभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने केवली पर्याय में बारह वर्ष पर्यन्त विविध देशो में विहार कर धर्मोपदेश के द्वारा भव्य जीवों का कल्याण किया-बीर शासन का लोक में प्रचार किया। और ईस्वी पूर्व ५१५ में राजगृह के विपुलगिरि से निर्वाण प्राप्त किया। अग्निभूति-(द्वितीय गणधर) यह इन्द्रभूति गौतम का मंझला भाई था। पिता का नाम वमुभूति और माता का नाम पृथ्वीदेवी था। वह भी अपने ज्येष्ठ भ्राता इन्द्रभूति के समान ही व्याकरण, छन्द, ज्योतिप, अलकार, दर्शन और वेद वेदांग आदि चौदह विद्यानों में कुशल था। वह ४७ वर्ष की वय में अपने पाँच मो गिप्यों के साथ भगवान महावीर के समवसरण में दीक्षित हया था और बारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में त्रयादश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हए अपने गण का पालन किया । पश्चात घाति कर्म का नाग कर केवलज्ञान प्राप्त किया ओर १६ वर्ष केवलो पर्याय में रह कर महावीर के जीवन काल में ही लगभग ७४ वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। वायुभूति-(तृतीय गणधर) यह इन्द्रभूति गौतम का छोटा भाई था । इसकी माता का नाम केशरी और पिता का नाम वही वसुभूति था। यह वेद वेदांगादि चतर्दश विद्याओं का पारगामी विद्वान था और व्याकरण छन्दादि समस्त विपयों में निष्णात था। वायुभूति के भी ५०० शिप्य थे। यह भी अपने दोनों भाइयों, उनके शिष्यों तथा अपने शिष्यों के साथ विपुलगिरि पर महावीर के समवसरण में दीक्षित हुया ओर उनका नोसग गणधर बना। उस समय इन की अवस्था ४२ वर्प के लगभग थी। इन्होंने १० वर्ष का जीवन प्रात्म-माधना में व्यतीत किया। पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर १८ वर्ष तक केवली जोवन में विहार करते रहे और भगवान महावीर के निर्वाण में दो वर्ष पूर्व हो ७० वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। प्रार्य व्यक्त या शुचिदत्त-(चतुर्थ गणधर) भगवान महावीर के चौथे गणधर का नाम प्रार्य व्यक्त या चिदत्त था। यह मगध देशस्थ सवाहन नामक नगर के राजा थे, इनका नाम सुप्रतिप्ठ था, इनको पटरानी का नाम रुक्मणि था, इनमे मुधर्म नाम का एक पुत्र हुआ था, जो कुशाग्र बुद्धि था, विद्यानों के परिज्ञान में थप्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और कलाओं का धारक था । सज्जनों के मन को आनन्ददायक और शत्रुपक्ष के कुमारों को भय उत्पन्न करने वाला था। एक दिन वह विशुद्धमति सुप्रतिप्ठ गजा अपनी पत्नी और पुत्र के माथ भव-समुद्र-सतारक भगवान महावीर के समवसरण में गया और उनकी दिव्य-ध्वनि सुन कर सांसारिक देह-भागों में विरक्त हो दिगम्बर मुनि हो गया और भगवान महावीर का चतुर्थ गणधर हुआ और तपश्चरण का अनुष्ठान कर केवलज्ञान प्राप्त कर १. गत्वा विपुलशब्दादिगिगै प्राप्म्यामि निवृतिम् । -उत्तर पु० ७६-५१७ २. अह एत्थ जि वर मगहाविमाए, मुर रमरिग माम वामिय दिमा। जिनमदिरमडियधरणियले, इन्दीवर-रप-कय मुर्गह जले । सवाहणु नामु अत्थि नयर, नायरविलामहामियग्वयरु ।। + + सो जाउ पुत्तु जण जाणिय हे, नरनाहें रुप्पिणी राणियहे । सउहम्म नामु विज्जा पवरु नीसेससत्थ विण्णाण घर ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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