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________________ ५०२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ भ० कमल कीर्ति यह काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगण के विद्वान भट्टारक अमलकीति के पट्टधर थे। उनकी गुरु परम्परा क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति अमलकोति कमलकीर्ति यह परम्परा सं० १५२५ के ग्वालियर के मूर्ति लेख में पाई जाती है । इसी सम्वत् के दूसरे लेख में, अमलकीर्ति के बाद संयमकीर्ति का नाम मिलता है। कमलकीर्ति केपट्ट पर सोना गिर में शभचन्द्र प्रतिष्ठित हए थे । इसका उल्लेख कवि रइध ने किया है। इससे स्पष्ट है कि ग्वालियर का एक पट्ट सोना गिर में था, और उस पर कमलकीर्ति प्रतिष्ठित थे । उन्हीं के पट्ट पर शुभचन्द्रप्रतिष्ठितहुए थे । अतः ये सब भट्टारक १५वीं शताब्दी विद्यमानमें रहे हैं। कमलकित्ति उत्तमखमषारउ, भव्वाभवम्भोणिहितार। तस्स पट्टकणयट्टिपरिठिउ, सिरि सुहचन्द सु तव उक्कंट्ठिउ । हरिवंशपुराण, प्रादि प्र० जिणसुत्त प्रत्थ प्रलहतएण सिरिकमलकिति पयसेवएण। सिरि कंजकित्ति पटंटवरसु, तच्चत्य सत्थभासणदि णेस । उइण मिच्छत्ततमोहणासु, सुहचन्द भडारउ सुजस वासु। हरि० अन्तिम प्र० कमलकीर्ति की एकमात्र रचना 'तत्वसार' टीका है। यह देवसेन के तत्वसार की टीका है जिसे कमल कीति ने कायस्थ माथरान्वय में अग्रणी अमरसिंह के मानस रूपी अरविन्द को विकसित करने के लिए दिनकर (सूर्य) स्वरूप इस टीका की रचना की है अर्थात् यह टीका उनके लिए लिखी गई है। प्रस्तुत कमलकीर्ति वहीं हैं जिन का उल्लेख कवि रइधू ने हरिवंश पुराण में किया है और जिसका उल्लेख सं० १५२५ के कवि रइधू द्वारा प्रतिष्ठित मूति लेख में हुआ है । अतः इनका समय १५वीं शताब्दी का उत्तार जान पड़ता है। कवि चन्द्रसेन इन्होंने अपना परिचय देने की कोई कृपा नहीं की। कवि की एकमात्र लघु कृति अपभ्रंश भाषा की १० पद्यात्मक 'जयमाला' उपलब्ध है जिसमें सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य को ख्यापित किया गया है और बतलाया है कि सिद्धचक्र व्रत का मन में अच्छी तरह चिन्तन करने से व्यक्ति के ज्वर, क्षय, गंडमाला, कुष्ट शूल आदि रोग नष्ट हो जाते हैं तथा सिद्धचक्र का स्मरण करने वाले व्यक्ति के सभी बन्धन, चौरादिक का भय और विपदाएं विनष्ट हो जाती हैं । परन्तु इसका स्मरण भावात्मक और निश्चल होना चाहिये । पत्ता-इय वर जयमाला परमरसाला विधुसेणेन वि कहिय थुहिं । जो पढइ पढावइ निय मणिभावइ सोणरु पावइ सिद्ध सुहम् ॥ कवि ने जयमाला का रचनाकाल नहीं दिया। पर लगताहै कि कवि को यह रचना १५वीं शताब्दी के लगभग होगी। कवि गोविन्द इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र 'गर्ग' था। इनके पिता का नाम साहु हीगा और माता का नाम पद्मश्री था। यह जिनशासन के भक्त थे। यह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान थे। इनकी एकमात्र कृति 'पुरुषार्थानुशासन' है। ग्रन्थ में उल्लेख है कि माथर कायस्थों के वंश में खेतल हम्रा जो बन्धुलोक रूपी तारागणों से चन्द्रमा के समान प्रकाशमान था। खेतल के रतिपाल नाम का पुत्र हुमा, रतिपाल के गदाधर और गदाधर के अमरसिंह और अमरसिह के लक्ष्मण नाम का पुत्र हमा, जिसकी ग्रन्थ प्रशस्ति में बड़ी प्रशंसा को गई है। अमरसिंह मुहम्मद बादशाह के द्वारा अधिकारियों में सम्मिलित होकर प्रधानता को पाकर के भी गर्व को प्राप्त नहीं हमा। वह प्रकृतितः
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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