SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५वीं १६वीं १७वीं और १८त्रीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि ५०१ पंडित नेमिचन्द्र यह षट् तर्क चक्रवर्ती विनयचन्द्र के प्रशिष्य और देवनन्दी के शिष्य थे। इन्होंने धनंजय कवि के 'राघव पाण्डवीय' काव्य या द्विसन्धान काव्य की 'पदकौमुदी नाम की टीका बनाई है। टीकाकार ने रचना काल का उल्लेख नहीं किया । प्रशस्ति में त्रैलोक्यकीर्ति नाम के एक विद्वान का उल्लेख किया है जिसके चरण कमलों के प्रसाद से वह ग्रन्थ समुद्र के पार को प्राप्त हुआ है । टीका में रचना काल न होने से समय के निश्चय करने में बड़ी कठिनाई हां रही है । इस टीका की अनेक प्रतियां भण्डारों में पाई जाती हैं। जयपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में ७० पत्रात्मक प्रति जी सं० १५०६ में राजाडूंगरसिंह के काल में गोपांचल में लिखी गई थी, लेखक प्रशस्ति अपूर्ण है । (जैन ग्रन्थ सूचो भा० ४ पृ० १७२ ) इससे इतना तो सुनिश्चित है कि पद कोमुदो टीका इससे पूर्ववर्ती है । संभवतः १५वीं शताब्दी में रची गई है । भ० शुभचन्द्र यह कर्नाटक प्रदेश के निवासी और काणूरगण के विद्वान थे जो राद्धान्त रूपी समुद्र के पार को पहुचे हुए थे और विद्वानों के द्वारा अभिवन्दनीय थे। इनको एक छोटी सी कृति 'षट्दर्शन प्रमाण प्रमेय संग्रह' नाम को उपलब्ध है, जो जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ पृष्ठ ४५ पर प्रकाशित हो चुकी है। भट्टारक शुभचन्द्र ने प्राचार्य समन्तभद्र की प्राप्तमी मांसा गत प्रमाण के 'तत्वज्ञान प्रमाण' नामक लक्षण का उल्लेख करते हुए उसके भेद - प्रभेदों की चर्चा की है । ग्रन्थ में रचना काल दिया हुआ नहीं है और न गुरु परम्परा का ही कोई उल्लेख किया है। जिससे भट्टारक शुभचन्द्र के समय पर प्रकाश डाला जा सके । ग्रन्थ में सांख्य, योग, चवाक, मीमांसक और बौद्ध दर्शन के तत्वों का संक्षेप में विचार किया है। कारगण में अनेक विद्वान हो गये हैं । श्रवणबेलगोल के समीप वही सोमवार नामक ग्राम की पुरानी बस्ती के समीप शक सं० १००१ (सन् १०७९ ) के उत्कीर्ण किये हुए शिलालेख में काणूरगण के प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव का उल्लेख निहित है । पर यह निश्चित करना कठिन है कि उक्त शुभचन्द इस काणूरगण में कब हुए हैं। 'ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त सरल है, उससे जान पड़ता है कि यह विक्रम की १४वीं शताब्दी में रचागया होगा । विश्व तत्व प्रकाश की प्रस्तावना के पृष्ठ ६६ में डा० विद्याधर जोहरापुर करने भ० विजय कीर्ति के शिष्य भ० शुभचन्द्र को उक्त ग्रन्थ का कर्ता ठहराया है जबकि यह शुभचन्द्र मूलसंघ बलात्कारगण के थे और षट् दर्शन प्रमाण प्रमेय संग्रह के कर्ता भ० शुचन्द्र कंडूरगण विद्वान थे । प्रतएव मूलसंघ के भ० शुभचन्द्र इसके कर्ता नहीं हो सकते। इनकी भिन्नता होते हुए भी डा० विद्याधर जोहरापुर करने उन्हें मूलसंघ के भ० विजय कीर्ति का शिष्य कैसे मान लिया । इस सम्बन्ध में अन्वेषण करना आवश्यक है, जिससे यथार्थ स्थिति का निर्णय हो सके । भास्कर कवि यह विश्वामित्र गोत्री जैन ब्राह्मण था, इसके पिता का नाम बसवांक था। कवि पेनुगोंडे ग्राम का वासी था । इसकी एक रचना 'जीवंधर चरित' प्राप्त है । जो वादीभसिंह सूरि के संस्कृत ग्रन्थ का कनड़ी अनुवाद है । ऐसी सूचना कवि ने स्वयं दी है। ग्रंथ के प्रारम्भ में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्यों और कवियों का स्मरण किया है— पंच परमेष्ठी, भूतवलि, पुष्पदन्त, वीरसेन, जिनसेन, प्रकलंक, कवि परमेष्ठी समन्तभद्र, कोण्डकुन्द, वादी भसिंह, पण्डितदेव, कुमारसेन, वर्द्धमान, धर्मभूषण, कुमारसेन के शिष्य वीरसेन, चरित्र भूषण, नेमिचन्द्र, गुणव नागवर्म, होत्र ( पोत्र), विजय, अग्गलदेव, गजांकुश और यशचन्द्र आदि । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना 'शान्तेश्वर वस्ती' नाम के जैन मन्दिर में शक सं० १३४५ के क्रोधन संवत्सर (सन् १४२४) में फाल्गुण शुक्ला १०मी रविवार के दिन पेनुगोंड के जिन मन्दिर में समाप्त की है । कवि का समय ईसा की १५वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy