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________________ ૪ सयम की निर्दोष चर्या से देदीप्यमान रहा है । इस तरह महावीर अन्तर्बाह्य तपों के अनुष्ठान द्वारा आत्म-शुद्धि करते हुए जृम्भिक ' ग्राम के समीप आये, और ऋजुकूला नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे बैठ गये। वैशाख शुक्ला दशमी को तीसरे पहर के समय जब वे एक शिला पर पष्ठोपवास से युक्त होकर क्षपक श्र ेणी पर प्रारूढ थे, उस समय चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्र के मध्य में स्थित था । भगवान महावीर ने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा ज्ञानावरणादि घाति-कर्म-मल को दग्ध किया और स्वाभाविक आत्मगुणों का विकास किया और केवलज्ञान या पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । जिस समय भगवान महावीर ने मोह कर्म का विनाश किया, उसके अनन्तर वे केवलज्ञान, केवल दर्शन और अनन्तवीर्य युक्त होकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गए तथा वे सयोगी जिन कहलाये । ऐसा नियम है कि मयोगी जिन प्रति समय असख्यात गुणित श्रेणी से कर्म प्रदेशाग्र की निर्जरा करते हुए । धर्म रूप तीर्थ- प्रवर्तन के लिये यथोचित धर्म-क्षेत्र में महाविभूति के साथ ) विहार करते हैं । जैन धर्म का प्राचीन इतिहास केवलज्ञान होने पर उन्हें समार के सभी पदार्थ युगपत् ( एक साथ) प्रतिभासित होने लगे और इस तरह भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर अहिसा की पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए । उनके समीप जाति विरोधी जीव भी अपना वैर-विरोध छोडकर शान्त हो जाते थे। उनकी अहिसा विश्वशान्ति और वास्तविक १. जमुई या ज भक ग्राम वज्रभूमि मे है। जो राजगिर में लगभग ३० मील और भरिया से सवासौ मील के लगभग दूरी पर स्थित है । ऋजुकूला नदी का संस्कृत नाम 'ऋष्यकूला' है। इसी जृम्भक ग्राम के दक्षिण में लगभग चार-पाच मील की दूरी पर 'केवली' नाम का एक गाव है। इस ग्राम के पास बहने वाली नदी का नाम अजन है । सभव है, उक्त केवली ग्राम भगवान महावीर के केवलज्ञान का स्थान हो । वैशाख शुक्ला दशमी के दिन वहाँ मेला भरता है, जो भगवान महावीर के केवलज्ञान की तिथि है । जयधवला मे जम्भक ग्राम के बाहर का निवर्ती प्रदेश महावीर के केवलज्ञान का स्थान बतलाया है। जैसा कि— वइमाह् जोण्हपत्रख दममीए उजुकूलगादी तीरे जभियगामिम्स वाहि छट्टोवबामेण सिलावट्टे श्रादावेतेण श्रवर हे पाद छायाए केवलरणामुपाइद ।' ( जयधव० पु० १ ० ७६ ) २. (अ) वमाह सुमी माघा रिक्वम्मि वीरगाहम्स । ऋजु लगदीतीरे अवरहे केवल रगां || तिलो० प० (प्रा) ऋजुकूलायास्तीरे गालद्र ुमसश्रिने शिलापट्टे । अपरा पष्ठेनारिथतस्य खलु जू भिका ग्रामे ॥ वैशाखमिनदशम्या हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे ॥ नि० भ० (द) उजुकूल रणदीतीरे जभियगामे वह मिलावट्टे । गादात्रेने वरण्हे पाद छायाए ॥ माह जोहपक्वे दममीए खवगमेढिमारुढो । हंत घाइकम्मं केवलग्गाण समावण्णो ॥ ( जय घ० पृ० १ पृ० ८० ) (ई) हरिवशपुराण २।५७-५६ । ( उ ) उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक ३४८ से ३५२ ३ तो अतर केवलगाण-दमण वीरियजुतो जिणो केवली सव्वण्हू सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिरणो त्ति भइ । श्रसंखेज्ज गुरगए सेढीए पदेसग्ग गिज्जरे मारगो विहरदित्ति । प्रकट है: कमाय पा० चुणि सुत्त १५७१, १५७२ पृ० ८६६ भगवान महावीर की सर्वज्ञता और सर्वदशित्व की चर्चा उस समय लोक में विश्रुत थी। यह बात बौद्ध त्रिपिटकों से देखो, मज्झिमनिकाय के चूल दुक्ख बखन्ध सुत्तन्त पृ० ५६ तथा म० नि० के चूल सकुलु दायी सुत्तन्त पृ० ३१८ ४. महिमा प्रतिष्ठाया तत्सन्निधो वैरत्यागः । - पातंजलि योगसूत्रम् ३५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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