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________________ केवलज्ञान वे खोले हुए मुखो से अत्यन्त भयकर दीखते थे । इनके अतिरिक्त सर्प, हाथी, मिह, अग्नि और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया। इस तरह पाप का अर्जन करने में निपूण उ म रुद्र ने अपनी विद्या के प्रभाव मे भीषण उपसर्ग किये किन्तु वह उन्हे ध्यान से विचलित करने में समर्थ न हो मका। अन्त में उसने उनके महति और महावीर नाम रखकर स्तुति की ओर अपने स्थान को चला गया ।' श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचागङ्ग निर्यक्ति में वर्द्धमान को छोड़ कर शेप २३ नोर्थवगे के तप कर्म को निरुपसर्ग बतलाया है। अन्य श्वेताम्बरीय ग्रन्था में भी महावीर के उपसर्ग की अनेक घटनाए उल्लिखित मिलती है, जिनमे स्पष्ट है कि महावीर को अपने माध-जीवन में अनेक उपसर्ग और परीपहो का सामना करना पड़ा, परन्तु वे उनमे रचमात्र भी विचलित नहीं हुए, प्रत्युत प्रान्ममहिणता मे उनके प्रान्मप्रभाव मे हा अभिवृद्धि हुई प्रोर लोगों ने उनके अमित माहम और प्रर्य की सराहना की। महावीर अपने माध-जोवन मे पच ममितिया के माथ मन-वचन-कायरूप तीन गुप्तियो को जीतनेउन्हे वश में करने और पचेन्द्रियो को उनक विपयो मे निरोध करने तथा कपाय-चक्र को कुशन मल्ल क समान मल-मल कर निष्प्राण एव रम रहित बनाने अथवा कपाया के रस को मुखाने, उनकी शक्ति का निर्बल करते हए क्षीण करने का उपक्रम करने हेतू, दर्शन-ज्ञान-चारित्र को स्थिरता से ममता एव मयत जीवन व्यतीत करते हए समस्त परद्रव्यो के विकल्पो से शून्य विशुद्ध प्रात्म स्वरूप में निम्न न वनि से अवगाहन करते थे । श्रमण महावीर को इस तरह ग्राम, खेट, कर्वट, अोर वन मटम्बादि अनेक स्थाना में मानपूर्वक उग्राग्र तपश्चरणा का अनुष्ठान एव आचरण करते हए बारह वर्ष, पाच महीने और पन्द्रह दिन का समय व्यनोत हो गया। उन्हें इन बारह वर्षों के समय में बारह चातुर्मामो में चार चार महीने एक एक स्थान पर रहना पड़ा, परन्तु अपनी मोन वृत्ति के कारण उन्होने कभी किसी से सभाषण तक नहीं किया और न किमी को उपदेशादि द्वारा हो तुप्ट किया । उपसर्ग और परीपहो के कठिन अवसरो पर भी समभाव का प्राथय लिया । महावीर का साध-जीवन कष्टमहिप्ण और १ देखो, उत्तर पुगण पर्व ७४ श्लोक ३३१ से ३३६ २. सम्वेमि तवो कम्म निस्वमग्ग तु वणियं जिणाग । नवर न बढमारणम्स मोवमग्ग मुगणेयव ।।२७६।। __ आचागग नियुक्ति ग्राम पुर खेट कट मटबघोगाकरान्प्रविजहार । उस्तपोविधानादशवर्षाण्यम रपूज्य ॥१०॥ निर्वाणभक्ति (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे आमतौर पर नीर्थंकरो के मौनपूर्वक ताश्चरण का विधान नहीं है किन्तु उनके यहाँ जहा तही वर्षावाम में चौमामा बिनाने और छाम्य अवस्था में प्रदेशादि म्वय देने अथवा यक्षादि के द्वारा दिलाने का उल्लेख पाया जाता है। परन्तु प्राचाराङ्ग सूत्र के टीकाकार गीलाक ने माधिक बारह वर्ष तक मौनपूर्वक तपश्चरण करन का दिगम्बर परम्परा के समान ही विधान किया है । वे वाक्य इस प्रकार है . "नानाविधाभितपतो घोरान परीषहोपसर्गानपि सहमानो महासत्वतया म्लेच्छानप्युपशमन नयन द्वादशवर्षाणि साधिकानि छदमस्थो मौनव्रती तपश्चचार।" -(प्राचाराग सूत्रवृत्ति पृ० २७३) प्राचार्य शीलाक के इस उल्लेख पर मे श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे भी तीर्थकर महावीर के मौनपूर्वक तपश्चरण का विधान होने मे छदमस्थ अवस्था मे उपदेशादि की कल्पना निरर्थक जान पड़ती है। धवलाटीका मे महावीर के तपश्चरण का काल बारह वर्ष साढे पाच महीना बतलाया है गमइय छदुमत्थत्त बारसवासाणि पच मासेय । पण्णारस दिरणाणि य तिरयण सुद्धो महावीरो॥ -धवला मे उद्धत प्राचीन गाथा
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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