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________________ ४२८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कुन्द प्रभु के चरणों की विनय करनेवाला सूचित किया है। इससे यह मूलसंघ के विद्वान ज्ञात होते हैं । मेरी राय में यह छेदपिण्ड के कर्ता हो सकते हैं। विमलकीति प्रस्तुत विमलकीति वागडसंध के रामकोर्ति के शिष्य थे । यह रामकीति वही है जो जयकीति के शिष्य थे। और जिनकी लिखी हई प्रशस्ति चित्तौड़ में मंवत् १२०७ में उत्कीर्ण की हई उपलब्ध है। विमलकीति की दो रचनाएँ हैं। सोखवइ विहाण कहा' और सुगन्धदसमो कहा। दोनों कथानों में व्रत का महत्त्व ओर उसके विधान का कथन किया गया है । जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यश.कीर्ति भी विमलकाति के शिप्य थे । इनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी है। मेघचन्द्र यह मूलसंघ, देशीगण, कुन्दकुन्दान्वय, पुस्तक गच्छ और इंगलेश्वर वलि के विद्वान थे । इनके गुरु का नाम भानूकीति था ओर प्रगुरु का वाहुबलि था। यह चन्द्रनाथ पार्श्वनाथ वसदि का पुरोहित था। अनन्तपुर जिले के ताडपत्रीय शिलालेख में प्रकट है कि उस स्थान पर एक जैन मन्दिर और जैन गुरुओं की प्रभावशाली परम्परा थी। उन्हें उम प्रदेश के सामान्तों से मरक्षण प्राप्त था । यह शिलालेख सन् ११६८ ई० का है, जिसमें उदयादित्य सामन्त के द्वारा मेघचन्द्र को भमिदान देने का उल्लेख है । (Jainism in South India P. 22) इसमे प्रस्तुत मेघचन्द्र विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान है। इनकी कोई रचना उपलब्ध नही है। कुमुदेन्दु मूलसघ-नन्दिसंघ बलात्कार गण के विद्वान थे। इन कुम देन्दु योगी के शिष्य माघनन्दि सैद्धान्तिक थे । परवादिगिरिवज्र और सरस कवितिलक इनके उपनाम थे। इनकी एक मात्र कृति 'कमुदेन्द-रामायण' नाम का ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि-यह पद्मनन्दि व्रती का पुत्र था, और इसकी माता का नाम कामाम्बिका था । पद्मनन्दि व्रती साहित्य कुमुदवन चन्द्रचतुर चतुविधि पाण्डित्य कला शतदनविकसन दिनमणिवादि धराधर कृलिश-कवि मखमणिमकूर, उपाधियां थी। इनके पितव्य (काका) श्री अर्हनन्दि व्रति बतलाये गये है। उन्हें परमागम नाटक तर्क व्याकरण निघण्टु छन्दोलङ् कृति चरित पुराण पडङ्गस्तुति नीति स्मृतिवेदान्त भरत सरत मन्त्रीपधि सहित नर तुरग गजमणिगण परीक्षा परिणत विशेषणों के साथ उल्लेखित किया गया है। इनका समय सन् १२६० के लगभग है। (कर्नाटक जैन कवि) गुणभद्र यह मूलमंघ देशीगण ओर पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के गगन दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीर्ति सिद्धान्त देव थे, और प्रशिप्य भानु कीति व्रतीन्द्र को, जिन्हें शक स० १०६५ के विजय संवत में होय्यसल वंश के वल्लाल नरेश ने पार्श्वनाथ और चौबीस तीर्थकरो की पूजन हेतु 'मास हल्लि' नाम का गांव दान में दिया था। प्रताव इनका समय वित्रम सवत १२३० है। और इनके प्रगुरु गुणभद्र का समय इनमें कम से कम २५ वर्ष पर्व माना जाय तो उनका समय विक्रम की १२वी शताब्दी का अन्तिम चरण और १३वीं का प्रारम्भिक भाग माना जा सकता है। (जैन लेख सं० भा०११० ३८५) प्रभाचन्द्र प्रस्तुत प्रभाचन्द्र श्रवणवेलगोल के शक संवत् १११८ के उत्कीर्ण हुए शिलालेख नं० १३० में, और शक सं० १. रामकित्ति गुरुविण उ करविण विमलकित्ति माल पड़े विण। -मुगन्ध दसमी कहा प्र.
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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